युधिष्ठिर का अपने पुत्रों एवं पांचालों के वध का वृतांत सुनकर विलाप

महाभारत सौप्तिक पर्व में ऐषीक पर्व के अंतर्गत दसवें अध्याय में संजय ने धृष्टद्युम्न के सारथि के मुख से पुत्रों और पांचालों के वध का वृतांत सुनकर युधिष्ठिर का विलाप करने का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

सारथि द्वारा पुत्रों एवं पांचालों के वध का वृतांत

वैशम्पायन जी कहते है- राजन! वह रात व्यतीत होने पर धृष्टद्युम्न के सारथि ने रात को सोते समय जो संहार किया गया था, उसका समाचार धर्मराम युधिष्ठिर से कह सुनाया। सारथि बोला- राजन! द्रुपद के पुत्रों सहित द्रौपदी देवी के भी सारे पुत्र मारे गये। वे रात को अपने शिबिर में निश्चिन्त एवं असावधान होकर सो रहे थे। उसी समय क्रूर कृतवर्मा, गौतमवंशी कृपाचार्य तथा पापी अश्वत्थामा ने आक्रमण करके आपके सारे शिबिर का विनाश कर डाला। इन तीनों ने प्रास, शक्ति और फरसों द्वारा सहस्रों, मनुष्यों, घोड़ों और हाथियों को काट-काटकर आपकी सारी सेना को समाप्त कर दिया है। भारत! जैसे फरसों से विशाल जंगल काटा जा रहा हो, उसी प्रकार उनके द्वारा छिन्न भिन्न की जाती हुई आपकी विशाल वाहिनी का महान आर्तनाद सुनायी पड़ता था। महामते! धर्मात्मन! उस विशाल सेना से अकेला मैं ही किसी प्रकार बचकर निकल आया हूँ। कृतवर्मा दूसरों को मारने में लगा हुआ था, इसीलिये मैं उस संकट से मुक्त हो सका हूँ।[1]

युधिष्ठिर का विलाप

वह अमंगलमय वचन सुनकर दुर्घर्ष राजा कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर पुत्रशोक से संतप्त हो पृथ्वी पर गिर पड़े। गिरते समय आगे बढ़कर सात्यकि ने उन्हें थाम लिया। भीमसेन, अर्जुन तथा माद्रीकुमार नकुल-सहदेव ने भी उन्हें पकड़ लिया। फिर होश में आने पर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर शोकाकुल वाणी द्वारा आर्तकी भाँति विलाप करने लगे- हाय! मैं शत्रुओं को पहले जीतकर पीछे पराजित हो गया। जो लोग दिव्यदृष्टि से सम्पन्न हैं, उनके लिये भी पदार्थों की गति को समझना अत्यन्त दुष्कर है। हाय! दूसरे लोग तो हारकर जीतते है, किंतु हम लोग जीतकर हार गये है! हमने भाइयों समवयस्क मित्रों पिततुल्य पुरुषों पुत्रों सुहृदयों दन्धुओं मन्त्रियों तथा पौत्रों की हत्या करके उन सबको जीतकर विजय प्राप्त की थी: परतु अब शत्रुओं द्वारा हम ही पराजित हो गये।कभी कभी अनर्थ भी अर्थ सा हो जाता है और अर्थ के रुप में दिखायी देने वाली वस्तु भी अनर्थक रुप में परिणत हो जाती है। इसी प्रकार हमारी यह विजय भी पराजय का ही रूप धारण करके आयी थी इसलिये जय भी पराजय बन गयी। दुर्बुद्धि मनुष्य यदि विजय लाभ के पश्चात विपत्ति में पड़े हुए पुरुष की भाँति अनुताप करता है तो वह अपनी उस जीत को जीत कैसे मान सकता है? क्योंकि उस दशा में तो वह शत्रुओं द्वारा पूर्णतः पराजित हो चुका है। जिन्हें विजय के लिये सुदृदों के वध का पाप करना पड़ता है, वे एक बार विजयलक्ष्मी से उल्लसित भले ही हो जायें, अन्त में पराजित होकर सतत सावधान रहने वाले शत्रुओं के हाथ से उन्‍हें पराजित होना ही पड़ता है। क्रोध में भरा हुआ कर्ण मनुष्यों में सिंह के समान था। कर्णि और नालीक नामक बाण उसकी दाढ़ें तथा युद्ध में उठी हुई तलवार उसकी जिह्वा थी। धनुष का खींचना ही उसका मुँह फैलाना था। प्रत्यन्चा की टंकार ही उसके लिये दहाड़ने के समान थी। युद्धों में कभी पीठ न दिखाने वाले उस भयंकर पुरुषसिंह के हाथ से जो जीवित छूट गये, वे ही ये मेरे सगे सम्बन्धी अपनी असावधानी के कारण मार डाले गये हैं।[1]

द्रोणाचार्य महासागर के समान थे, रथ ही पानी का कुण्ड था, बाणों की वर्षा ही लहरों के समान ऊपर उठती थी, रत्नमय आभूषण ही उस द्रोणरूपी समुद्र के रत्न थे, रथ के घोडे़ ही समुद्री घोड़ों के समान जान पड़ते थे, शक्ति और ऋष्टि मत्स्य के समान तथा ध्वज नाग एवं मगर के तुल्य थे, धनुष ही भंवर तथा बड़े बडे़ बाण ही फेन थे, संग्राम ही चन्द्रोदय बनकर उस समुद्र के बेग को चरम सीमा तक पहुँचा देता था, प्रत्यन्चा और पहियों की ध्वनि ही उस महासागर की गर्जना थी, ऐसे द्रोणरूपी सागर को जो छोटे बड़े नाना प्रकार के शस्त्रों की नौका बनाकर पार गये, वे ही राजकुमार असावधानी से मार डाले गये। प्रमाद से बढ़कर इस संसार में मनुष्यों के लिये दूसरी कोई मृत्यु नहीं। प्रमादी मनुष्य को सारे अर्थ सब ओर से त्याग देते है और अनर्थ बिना बुलाये ही उसके पास चले आते है। महासमर में भीष्मरूपी अग्नि जब पाण्डव सेना को जला रही थी, उस समय ऊँची ध्वजाओं के शिखर पर फहराती हुई पताका ही धूम के समान जान पड़ती थी, बाणवर्षा ही आग की लपटें थी, क्रोध ही प्रचण्ड वायु बनकर उस ज्वाला को बढ़ा रहा था, कवच और नाना प्रकार के अस्त्र शस्त्र उस आग की आहुति बन रहे थे, विशाल सेनारूपी सूखे जंगल में दावानल के समान वह आग लगी थी, हाथ में लिये हुए अस्त्र शस्त्र ही उस अग्नि के प्रचण्ड वेग थे, ऐसे अग्निदाह के कष्ट को जिन्‍होंने सह लिया, वे ही राजपुत्र प्रमादवश मारे गये।

प्रमादी मनुष्य कभी विद्या, तप, वैभव अथवा महान यश नहीं प्राप्त कर सकता। देखो, देवराज इन्द्र प्रमाद छोड़ देने के ही कारण अपने सारे शत्रुओं का संहार करके सुखपूर्वक उन्‍नति कर रहे हैं। देखो, प्रमाद के ही कारण ये इन्द्र के समान पराक्रमी, राजाओं के पुत्र और पौत्र सामान्य रूप से मार डाले गये, जैसे समृद्धिशाली व्यापारी समुद्र को पार करके प्रमादवश अवहेलना करने के कारण छोटी सी नदी में डूब गये हो। शत्रुओं ने अमर्ष के वशीभूत होकर जिन्‍हें सोते समय ही मार डाला है, वे तो निःसंदेह स्वर्गलोक में पहुँच गये हैं। मुझे तो उस सती साध्वी कृष्णा के लिये चिन्ता हो रही है, जो आज शोक के समुद्र में डूबकर नष्ट हो जाने की स्थिति में पहुँच गयी है। एक तो पहले से ही शोक के कारण क्षीण होकर उसकी देह सूखी लकड़ी के समान हो गयी है? दूसरे फिर जब वह अपने भाईयों, पुत्रों तथा बूढे़ पिता पाञ्चालराज द्रुपद की मृत्यु का समाचार सुनेगी तब और भी सूख जायेगी तथा अवश्य ही अचेक होकर पृथ्वी पर गिर पड़ेगी। जो सदा सुख भोगने के ही योग्य है, वह उस शोकजनित दुःख को न सह सकने के कारण न जाने कैसी दशा को पहुँच जायगी? पुत्रों और भाईयों के विनाश से व्यथित हो उसके हृदय में जो शोक की आग जल उठेगी, उससे उसकी बड़ी शोचनीय दशा हो जायेगी।[2]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत सौप्तिक पर्व अध्याय 10 श्लोक 1-16
  2. महाभारत सौप्तिक पर्व अध्याय 10 श्लोक 17-31

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अश्वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्मा का वन में विश्राम | अश्वत्थामा के मन में क्रूर संकल्प का उदय | अश्वत्थामा का कृतवर्मा और कृपाचार्य से सलाह लेना | कृपाचार्य द्वारा सत्पुरुषों से सलाह लेने की प्रेरणा देना | अश्वत्थामा द्वारा अपना क्रुरतापूर्ण निश्चय बताना | कृपाचार्य द्वारा अगले दिन युद्ध करने की सलाह देना | अश्वत्थामा का उसी रात्रि आक्रमण का आग्रह | अश्वत्थामा और कृपाचार्य का संवाद | अश्वत्थामा का पांडवों के शिबिर की ओर प्रस्थान | अश्वत्थामा द्वारा शिबिरद्वार पर उपस्थित पुरुष पर प्रहार | अश्वत्थामा का शिव की शरण में जाना | अश्वत्थामा द्वारा शिव की स्तुति | अश्वत्थामा के सामने अग्निवेदी और भूतगणों का प्राकट्य | अश्वत्थामा द्वारा शिव से खड्ग प्राप्त करना | अश्वत्थामा द्वारा सोये हुए पांचाल आदि वीरों का वध | कृतवर्मा और कृपाचार्य द्वारा भागते हुए सैनिकों का वध | दुर्योधन को देखकर कृपाचार्य और अश्वत्थामा का विलाप | पांचालों के वध का वृतांत सुनकर दुर्योधन का प्राण त्यागना

ऐषीक पर्व

युधिष्ठिर का अपने पुत्रों एवं पांचालों के वध का वृतांत सुनकर विलाप | युधिष्ठिर का मारे हुए पुत्रादि को देखकर भाई सहित शोकातुर होना | युधिष्ठिर एवं द्रौपदी का विलाप | द्रौपदी द्वारा अश्वत्थामा के वध का आग्रह | भीमसेन का अश्वथामा को मारने के लिए प्रस्थान | श्रीकृष्ण द्वारा अश्वत्थामा की चपलता तथा क्रूरता का वर्णन और भीम की रक्षा का आदेश | श्रीकृष्ण, अर्जुन और युधिष्ठिर का भीमसेन के पीछे जाना | अश्वत्थामा के द्वारा ब्रह्मास्त्र का प्रयोग | अर्जुन के द्वारा ब्रह्मास्त्र का प्रयोग | ब्रह्मास्त्र को शांत कराने हेतु वेदव्यास और नारद का प्रकट होना | अर्जुन द्वारा अपने ब्रह्मास्त्र का उपसंहार | अश्वत्थामा का मणि देकर पांडवों के गर्भों पर दिव्यास्त्र छोड़ना | श्रीकृष्ण से शाप पाकर अश्वत्थामा का वन को प्रस्थान | पांडवों का मणि देकर द्रौपदी को शांत करना | युधिष्ठिर का समस्त पुत्रों और सैनिकों के मारे जाने के विषय में श्रीकृष्ण से पूछना | श्रीकृष्ण द्वारा युधिष्ठिर से महादेव की महिमा का प्रतिपादन | महादेव के कोप से देवता, यज्ञ और जगत की दुरवस्था | महादेव के प्रसाद से सबका स्वस्थ हो जाना

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