यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दषोडश अध्याययोगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण के प्रश्न प्रस्तुत करने की अपनी विशिष्ट शैली है। पहले वे प्रकरण की विशेषताओं का उल्लेख करते हैं, जिससे पुरुष उसकी ओर आकर्षित हो, तत्पश्चात् वे उस प्रकरण को स्पष्ट करते हैं। उदाहरण के लिये कर्म को लें। उन्होंने दूसरे अध्याय में ही प्रेरणा दी कि- अर्जुन! कर्म कर। तीसरे अध्याय में उन्होंने इंगित किया कि निर्धारित कर्म कर। निर्धारित कर्म क्या है? तो बताया-यज्ञ की प्रक्रिया ही कर्म है। फिर उन्होंने यज्ञ का स्वरूप न बताकर पहले बताया कि यज्ञ आया कहाँ से और देता क्या है? चौथे अध्याय में तेरह-चौदह विधियों से यज्ञ का स्वरूप स्पष्ट किया, जिसको करना कर्म है। यहाँ कर्म स्पष्ट होता है, जिसका शुद्ध अर्थ है। योग-चिन्तन, आराधना, जो मन और इन्द्रियों की क्रिया से सम्पन्न होता है। इसी प्रकार उन्होंने अध्याय नौ में दैवी और आसुरी सम्पद् का नाम लिया। उनकी विशेषताओं पर बल दिया कि-अर्जुन! आसुरी स्वभाववाले मुझे तुच्छ कहकर पुकारते हैं। हूँ तो मैं भी मनुष्य-शरीर के आधारवाला क्योंकि मनुष्य-शरीर में ही मुझे यह स्थिति मिली है; किन्तु आसुरी स्वभाववाले, मूढ़ स्वभाववाले मुझे नहीं भजते, जबकि दैवी सम्पद् से युक्त भक्तजन अनन्य श्रद्धा से मुझे उपासते हैं। किन्तु इन सम्पत्तियों का स्वरूप, उनका गठन अभी तक नहीं बताया गया। अब अध्याय सोलह में योगेश्वर उनका स्वरूप स्पष्ट करने जा रहे हैं, जिनमें प्रस्तुत है पहले दैवी सम्पद् के लक्षण-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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