यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दषोडश अध्यायश्रीभगवानुवाच भय का सर्वथा अभाव, अन्तःकरण् की शुद्धता, तत्त्वज्ञान के लिये ध्यान में दृढ़ स्थिति अथवा निरन्तर लगन, सर्वस्व का समर्पण, इन्द्रियों का भली प्रकार दमन, यज्ञ का आचरण (जैसा स्वयं श्रीकृष्ण ने अध्याय चार में बताया है-संयमाग्नि में हवन, इन्द्रियाग्नि में हवन, प्राण-अपान में हवन और अन्त में ज्ञानाग्नि में हवन अर्थात् आराधना की प्रक्रिया, जो केवल मन और इन्द्रियों की अन्तःक्रिया से सम्पन्न होती है। तिल, जौ, वेदी इत्यादि सामग्रियों से होनेवाले यज्ञ का इस गोतोक्त यज्ञ से कोई सम्बन्ध नहीं है। श्रीकृष्ण ने ऐसे किसी कर्मकाण्ड को यज्ञ नहीं माना।), स्वाध्याय अर्थात् स्व-स्वरूप की ओर अग्रसर करानेवाला अध्ययन, तप अर्थात् मनसहित इन्द्रियों को इष्ट के अनुरूप ढालना तथा ‘आर्जवम्’- शरीर और इन्द्रियों सहित अन्तःकरण की सरलता- |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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