विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दषष्ठम अध्यायउन्होंने प्राप्तिवाले योगी की रहनी बतायी। ‘यज्ञस्थली’, बैठने का आसन तथा बैठने के तरीके पर उन्होंने कहा कि स्थान एकान्त और स्वच्छ हो। वस्त्र, मृगचर्म अथवा कुश की चटाई में से कोई एक आसन हो। कर्म के अनुरूप चेष्टा, युक्ताहार-विहार, सोने-जागने के संयम पर उन्होंने बल दिया। योगी के निरुद्ध चित्त की उपमा उन्होंने वायुरहित स्थान में दीपक की अकम्पित लौ से दी। और इस प्रकार उस निरुद्ध चित्त का भी जब विलय हो जाता है, उस समय वह योग की पराकाष्ठा अनन्त आनन्द को प्राप्त होता है। संसार के संयोग-वियोग से रहित अनन्त सुख का नाम योग है। योग का अर्थ है उससे मिलन। जो योगी इसमें प्रवेश पा जाता है, वह सम्पूर्ण भूतों में समदृष्टिवाला हो जाता है। जैसे अपनी आत्मा वैसे ही सबकी आत्मा को देखता है। वह परम पराकाष्ठा की शान्ति को प्राप्त होता है। अतः योग आवश्यक है। मन जहाँ-जहाँ जाय, वहाँ-वहाँ से घसीटकर बारम्बार इसका निरोध करना चाहिये। श्रीकृष्ण ने स्वीकार किया कि मन बड़ी कठिनाई से वश में होनेवाला है, लेकिन होता है। यह अभ्यास और वैराग्य द्वारा वश में हो जाता है। शिथिल प्रयत्नवाला व्यक्ति भी अनेक जन्म के अभ्यास से वहीं पहुँच जाता है, जिसका नाम परमगति अथवा परमधाम है। तपस्वियों, ज्ञानमार्गियों तथा केवल कर्मियों से भी योगी श्रेष्ठ है, इसलिये अर्जुन! तू योगी बन। समर्पण के साथ अन्तर्मन से योग का आचरण कर। प्रस्तुत अध्याय में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने प्रमुख रूप से योग की प्राप्ति के लिये अभ्यास पर बल दिया है। अतः
|
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
सम्बंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ सं. |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज