यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 343

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

षष्ठम अध्याय

निष्कर्ष-

इस अध्याय के आरम्भ में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा कि फल के आश्रय से रहित होकर जो ‘कार्यम् कर्म’ अर्थात् करने योग्य प्रक्रिया-विशेष का आचरण करता है, वही सन्यासी है और उसी कर्म को करनेवाला ही योगी है। केवल क्रियाओं अथवा अग्नि को त्यागनेवाला योगी अथवा सन्यासी नहीं होता। संकल्पों का त्याग किये बिना कोई भी पुरुष सन्यासी अथवा योगी नहीं होता। इस संकल्प नहीं करते-ऐसा कह देने मात्र से संकल्प पिण्ड नहीं छोड़ते। योग में आरूढ़ होने की इच्छावाले पुरुष को चाहिये कि ‘कार्यम् कर्म’ करे। कर्म करते-करते योगारूढ़ हो जाने पर ही सर्वसंकल्पों का अभाव होता है, इससे पूर्व नहीं। सर्वसंकल्पों का अभाव ही सन्यास है।

योगेश्वर ने पुनः बताया कि आत्मा अधोगति में जाता है और उसका उद्धार भी होता है। जिस पुरुष द्वारा मनसहित इन्द्रियाँ जीत ली गयी हैं, उसका आत्मा उसके लिये मित्र बनकर मित्रता में बरतता है तथा परमकल्याण करनेवाला होता है। जिसके द्वारा ये नहीं जीती गयीं, उसके लिये उसी का आत्मा शत्रु बनकर शत्रुता में बरतता है, यातनाओं का कारण बनता है। अतः मनुष्य को चाहिये कि अपने आत्मा को अधोगति में न पहुँचावे, अपने द्वारा अपनी आत्मा का उद्धार करे।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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