विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दषष्ठम अध्यायबन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः। जिस पुरुष द्वारा मन और इन्द्रियोंसहित शरीर जीता हुआ है, उसके लिये उसी का आत्मा मित्र है और जिसके द्वारा मन और इन्द्रियोंसहित शरीर नहीं जीता गया है, उसके लिये वह स्वयं शत्रुता में बरतता है। इन दो श्लोकों में श्रीकृष्ण एक ही बात कहते हैं कि अपने द्वारा अपने आत्मा का उद्धार करें, उसे अधोगति में न पहुँचावें; क्योंकि आत्मा ही मित्र है। सृष्टि में न दूसरा कोई शत्रु है, न मित्र। किस प्रकार? जिसके द्वारा मनसहित इन्द्रियाँ जीती हुई हैं, उसके लिये उसी का आत्मा मित्र बनकर मित्रता में बरतता है, परमकल्याण करनेवाला होता है और जिसके द्वारा मनसहित इन्द्रियाँ नहीं जीती गयी हैं, उसके लिये उसी का आत्मा शत्रु बनकर शत्रुता में बरतता है, अनन्त योनियों और यातनाओं की ओर ले जाता है। प्रायः लोग कहते हैं-‘मैं तो आत्मा हूँ’। गीता में लिखा है, “न इसे शस्त्र काट सकता है, न अग्नि जला सकती है, न वायु सुखा सकता है। यह नित्य है, अमृतस्वरूप है, न बदलनेवाला है, शाश्वत है और हव आत्मा मुझमें है ही।” वे गीता की इन पंक्तियों पर ध्यान नहीं देते कि आत्मा अधोगति में भी जाता है। आत्मा का उद्वार भी होता है, जिसके लिये ‘कार्यम् कर्म’-करने योग्य प्रक्रिया-विशेष करके ही उपलब्धि बतायी गयी है। अब अनुकूल आत्मा के लक्षण देखें- |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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