यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 182

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

चतुर्थ अध्याय


अध्याय तीन में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने आश्वस्त किया कि दोषदृष्टि से रहित होकर जो भी मानव श्रद्धायुक्त हो मेरे मत के अनुसार चलेगा, वह कर्मों के बन्धन से भली प्रकार छूट जायेगा। कर्मबन्धन से मुक्ति दिलाने की क्षमता योग (ज्ञानयोग तथा कर्मयोग, दोनों) में है। योग में ही युद्ध-संचार निहित है। प्रस्तुत अध्याय में वे बताते हैं कि इस योग का प्रणेता कौन है? इसका क्रमिक विकास कैसे होता है?

श्रीभगवानुवाच

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरक्ष्विाकवेऽब्रवीत् ।।1।।

अर्जुन! मैंने इस अविनाशी योग को कल्प के आदि में विवस्वान् (सूर्य) के प्रति कहा, विवस्वान् ने मनु से और मनु ने इक्ष्वाकु से कहा। किसने कहा? मैंने। श्रीकृष्ण कौन थे? एक योगी। तत्त्वस्थित महापुरुष ही इस अविनाशी योग को कल्प के आरम्भ में अर्थात् भजन के आरम्भ में विवस्वान् अर्थात् जो विवश हैं, ऐसे प्राणियों से कहता है। सुरा में संचार कर देता है। यहाँ सूर्य एक प्रतीक है; क्योंकि सुरा में ही वह परम प्रकाशस्वरूप है और वहीं उसके पाने का विधान है। वास्तविक प्रकाशदाता (सूर्य) वहीं है।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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