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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द
चतुर्थ अध्याय
यह योग अविनाशी है। श्रीकृष्ण ने कहा कि इसमें आरम्भ का नाश नहीं होता। इस योग का आरम्भ भर कर दें तो यह पूर्णत्व दिलाकर ही शान्त होता है। शरीर का कल्प औषधियों द्वारा होता है; किन्तु आत्मा का भजन से होता है। भजन का आरम्भ ही आत्म-कल्प का आदि है। यह साधन-भजन भी किसी महापुरुष की ही देन है। मोहनिशा में अचेत आदिम मानव, जिसमें भजन का कोई संस्कार नहीं है, योग के विषय में जिसने कभी सोचा तक नहीं, ऐसा मनुष्य किसी महापुरुष को देखता है तो उनके दर्शनमात्र से, उनकी वाणी से, टूटी-फूटी सेवा और सान्निध्य से योग के संस्कार उसमें संचारित हो जाते हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी इसी को कहते हैं-‘जे चितए प्रभु जिन्ह प्रभु हेरे।’, ‘ते सब भए परम पद जोगू।’[1]
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