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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द
तृतीय अध्याय
अध्याय दो में भगवान श्रीकृष्ण ने बताया कि यह बुद्धि तेरे लिये ज्ञानमार्ग के विषय में कही गयी। कौन-सी बुद्धि? यही कि युद्ध कर। जीतोगे तो महामहिम की स्थिति प्राप्त कर लोगे और हारोगे तो देवत्व है। जीत में सर्वस्त है और हार में भी देवत्व है, कुछ मिलता ही है। अतः इस दृष्टि से लाभ और हानि दोनों में कुछ-न-कुछ मिलता ही है, किन्चिंत् भी क्षति नहीं है। फिर कहा-अब इसी को तू निष्काम कर्मयोग के विषय में सुन, जिस बुद्धि से युक्त होकर तू कर्मों के बन्धन से अच्छी प्रकार छूट जायेगा। फिर उसकी विशेषताओं पर प्रकाश डाला। कर्म करते समय आवश्यक सावधानियों पर बल दिया कि फल की वासनावाला न हो, कामनाओं से रहित होकर कर्म में प्रवृत्त हो और कर्म करने में तेरी अश्रद्धा भी न हो, जिससे तू कर्मबन्धन से मुक्त हो जायेगा। मुक्त तो होगा; किन्तु रास्ते में अपनी स्थिति नहीं दिखायी पड़ी।
अतः अर्जुन को निष्काम कर्मयोग की अपेक्षा ज्ञानमार्ग सरल और प्राप्तिवाला प्रतीत हुआ। उसने प्रश्न किया-जनार्दन! निष्काम कर्म की अपेक्षा ज्ञानमार्ग आपकी दृष्टि में श्रेष्ठ है तो मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगतो हैं? प्रश्न स्वाभाविक था। मान लें, एक ही स्थान पर जाने के दो रास्ते हैं। यदि आपको वास्तव में जाना है तो आप अवश्य प्रश्न करेंगे कि इनमें सुगम कौन है? यदि नहीं करते तो आप पथिक नहीं। ठीक इसी प्रकार अर्जुन ने भी प्रश्न रखा-
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