विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दद्वितीय अध्याययततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः। कौन्तेयः प्रयत्न करनेवाले मेधावी पुरुष की प्रमथनशील इन्द्रियाँ उसके मन को बलात् हर लेती हैं, विचलित कर देती हैं। इसलिये- तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः। उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को सयंत करके योग से युक्त और समर्पण के साथ मेरे आश्रित हो; क्योंकि जिस पुरुष की इन्द्रियाँ वश में होती हैं, उसी की बुद्धि स्थिर होती है। यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण साधन के निषेधात्मक अवयवों के साथ उसके विधेयात्मक पहलू पर जोर देते हैं। केवल संयम और निषेध से इन्द्रियाँ वश में नहीं होतीं, समर्पण के साथ इष्ट-चिन्तन अनिवार्य है। इष्ट-चिन्तन के अभाव में विषय-चिन्तन होगा, जिसके कुपरिणाम श्रीकृष्ण के ही शब्दों में देखें-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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