यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 110

Prev.png

यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

द्वितीय अध्याय

ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते।
संगात्सन्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।62।।

विषयों का चिन्तन करनेवाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है। आसक्ति से कामना उत्पन्न होती है। कामना-पूर्ति में व्यवधान आने से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध किसे जन्म देता है-

क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।63।।

क्रोध से विशेष मूढ़ता अर्थात् अविवेक उत्पन्न होता है। नित्य-अनित्य वस्तु का विचार नहीं रह जाता। अविवेक से स्मरण शक्ति भ्रमित हो जाती है (जैसा अर्जुन को हुआ था-‘भ्रमतीव च मे मनः।[1] गीता के समापन पर उसने कहा- ‘नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा।’[2] क्या करें, क्या न करें?- इसका निर्णन नहीं हो पाता।), स्मृति भ्रमित होने से योगपरायण बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धिनाश होने से यह पुरुष अपने श्रेयसाधन से च्युत हो जाता है।

Next.png

टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1/30
  2. 18/73

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः