गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
दसवाँ अध्याय
श्रीभगवानुवाच व्याख्या- अर्जुन भगवान में अत्यन्त प्रेम रखने वाले (भक्त) हैं; अतः भगवान उनके लिये भक्ति-सम्बन्धी परम वचन पुनः कहते हैं। न मे विदु: सुरगणा: प्रभवं न महर्षय: । व्याख्या- परमात्मा जानने का विषय नहीं है, प्रत्युत मानने और अनुभव करने का विषय हैं। उन्हें माना ही जा सकता है, जाना नहीं जा सकता। जैसे, अपने माता-पिता को हम मान ही सकते हैं, जान नहीं सकते; क्योंकि जन्म लेते समय हमने उन्हें देखा ही नहीं, देखना सम्भव ही नहीं, माता की अपेक्षा भी पिता को जानना सर्वथा असम्भव है; क्योंकि माता से जन्म लेते समय तो हमारा शरीर बन चुका था, पर पिता से जन्म लेते समय हमारे शरीर की सत्ता ही नहीं थी। भगवान सम्पूर्ण संसार के पिता हैं- ‘पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः’[1], ‘पितासि लोकस्य चराचरस्य’[2], ‘अहं बीजप्रदः पिता’[3]इसलिये परमात्मा को जानना सर्वथा असम्भव है। उन्हें माना ही जा सकता है। परमात्मा को हम जान सकते ही नहीं और माने बिना रह सकते ही नहीं। जैसे, माता-पिता को माने बिना हम रह सकते ही नहीं। अगर हम अपनी (शरीर की) सत्ता मानते हैं तो माता-पिता की सत्ता माननी ही पड़ेगी। कार्य है तो उसका कारण भी है। ऐसे ही परमात्मा को माने बिना हम रह सकते ही नहीं। अगर हम अपनी सत्ता (होनापन) मानते हैं तो परमात्मा की सत्ता माननी ही पड़ेगी। कारण के बिना कार्य कहाँ से आया? परमात्मा के बिना हम स्वयं कहाँ से आये? हमारी सत्ता परमात्मा के होने में प्रत्यक्ष प्रमाण है। जैसे ‘हम नहीं हैं’- इस तरह अपने होने पन का कोई निषेध या खण्डन नहीं कर सकता, ऐसे ही ‘परमात्मा नहीं हैं’- इस तरह परमात्मा के होनेपन का भी कोई निषेध या खण्डन नहीं कर सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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