गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
सांख्य-योग
इसी कारण से हमने अनार्य-जुष्टं, क्लैव्यं, हृदय-दौर्बल्यं आदि शब्दों को देखकर तथा अध्याय 6 श्लोक 5 के “उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्” में ‘अवसाद’ शब्द को देखकर “कश्मल” का अर्थ “युद्ध-निर्वेद” किया है। यह युद्ध-निर्वेद, स्वजन, बान्धवों के प्रति मोह, गुरुजन, आचार्य के प्रति आदर, श्रद्धा, सुहृद मित्रगण के प्रति प्रेम, राष्ट्र-रखा भाव, समाज-रक्षा भाव, शुद्ध आर्यरक्त रक्षा भाव, नारी-सतीत्व संरक्षण भाव, आदि अनेकानेक भावनाओं के कारण हो सकता है। प्रथम अध्याय के अन्त में ही लिखा है कि- इससे स्पष्ट है कि अर्जुन को बन्धु-बान्धवों, गुरुजन, आचार्य, मित्र, सुहृदों को देखकर विषाद हुआ और विषाद के कारण मोह नहीं हो सकता कश्मल (युद्ध से निर्वेद) ही हो सकता है। इस विचार से मोह विषाद का कारण है और विषाद कश्मल का कारण है जिससे युद्ध निर्वेद होना या ग्लानि होना है अतः कश्मल और युद्ध-निर्वेद का कार्य-कारण सम्बन्ध है। और यह युद्ध-निर्वेद रूपी कार्य किसी भी कारण रूप कश्मल से होना सम्भव हो सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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