गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
सांख्य-योग
इसके पश्चात् देवर्षि नारद “भक्ति” को श्रीकृष्ण के चरणकमल का चिन्तन करने का उपदेश देते हैं और कहते हैं कि “उनकी कृपा से तुम्हारा सारा दुःख उसी प्रकार दूर हो जावेगा जिस प्रकार कौरवों के अत्याचारों से द्रौपदी का दुःख दूर हुआ था।” श्रीमद्भागवत में यह नारद वाक्य इस प्रकार है- “द्रौपदी च परित्राता येन कौरव कश्मलात” यहाँ ‘कश्मल’ का अर्थ होता है कौरवों के अत्याचार, अपमान, दुव्र्यवहार के कारण जो दुःख द्रौपदी को हुआ था। तीसरे स्थान पर “कश्मल” का प्रयोग श्रीमद्भागवत में आत्मदेव ब्राह्मण के पुत्र धुन्धुकारी तथा गाय के पुत्र “गोकर्ण” की कथा में है। धुन्धुकारी कुटिल, अधर्मी तथा अनाचारी था; गोकर्ण इसके विपरीत ज्ञानी, पंडित तथा धर्मात्मा था। धुन्धुकारी अपने कुकर्मों के कारण प्रेत योनि को प्राप्त हुआ। धुन्धुकारी की इस प्रेतात्मा को गोकर्ण ने श्रीमद्भागवत सुनाकर प्रेत योनि की यातना से मुक्त किया था उस समय धुन्धुकारी ने अपने भाई गोकर्ण से इस प्रकार कहा था कि “त्वयाहं मोचितो बन्धो कृपया प्रेतकश्मलात्” (माहात्मय अ. 5।52) अर्थात् हे भाई! तुमने कृपा करके मुझे प्रेतयोनि की यातनाओं से मुक्त कर दिया। इस प्रकार “कश्मल” का प्रयोग दुःख, दुव्र्यवहार, अत्याचार, यातना, पीडा, आदि अनेक अर्थों में किया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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