गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 175

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय- 2
सांख्य-योग
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इसके पश्चात् देवर्षि नारद “भक्ति” को श्रीकृष्ण के चरणकमल का चिन्तन करने का उपदेश देते हैं और कहते हैं कि “उनकी कृपा से तुम्हारा सारा दुःख उसी प्रकार दूर हो जावेगा जिस प्रकार कौरवों के अत्याचारों से द्रौपदी का दुःख दूर हुआ था।” श्रीमद्भागवत में यह नारद वाक्य इस प्रकार है-

“द्रौपदी च परित्राता येन कौरव कश्मलात” यहाँ ‘कश्मल’ का अर्थ होता है कौरवों के अत्याचार, अपमान, दुव्र्यवहार के कारण जो दुःख द्रौपदी को हुआ था।

तीसरे स्थान पर “कश्मल” का प्रयोग श्रीमद्भागवत में आत्मदेव ब्राह्मण के पुत्र धुन्धुकारी तथा गाय के पुत्र “गोकर्ण” की कथा में है। धुन्धुकारी कुटिल, अधर्मी तथा अनाचारी था; गोकर्ण इसके विपरीत ज्ञानी, पंडित तथा धर्मात्मा था। धुन्धुकारी अपने कुकर्मों के कारण प्रेत योनि को प्राप्त हुआ। धुन्धुकारी की इस प्रेतात्मा को गोकर्ण ने श्रीमद्भागवत सुनाकर प्रेत योनि की यातना से मुक्त किया था उस समय धुन्धुकारी ने अपने भाई गोकर्ण से इस प्रकार कहा था कि “त्वयाहं मोचितो बन्धो कृपया प्रेतकश्मलात्” (माहात्मय अ. 5।52) अर्थात् हे भाई! तुमने कृपा करके मुझे प्रेतयोनि की यातनाओं से मुक्त कर दिया। इस प्रकार “कश्मल” का प्रयोग दुःख, दुव्र्यवहार, अत्याचार, यातना, पीडा, आदि अनेक अर्थों में किया गया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
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1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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