गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 1084

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय-18
मोक्ष-संन्यास-योग
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।। श्लोक 40 से 44 का भावार्थ।।

श्लोक 40 से 44 में प्रकृतिजन्य-गुण व स्वभावानुसार जगत का धारण-पोषण तथा व्यवहार सुचारु रूप से नियमानुसार चलते रहने के लिए जिस चतुर्वर्ण व्यवस्था का निर्माण किया गया है और प्रत्येक वर्ण का करणीय कर्तव्य-कर्म नियत व निर्धारित किया गया है उस चतुर्वर्ण अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यशूद्र की गुणत्रय-विभाग[1] के अनुसार कर्तव्य कर्मों का वर्णन किया गया है।

भगवान कृष्ण ने कहा है कि[2]पृथ्वी पर, आकाश में, स्वर्ग में या देवताओं में कोई भी प्राणी या वस्तु ऐसी नहीं है जिसमें प्रकृति के सत्त्व, रज, तम तीनों गुण न होते हों। स्थावर व जंगम सृष्टि जो भी है वह त्रिगुणात्मक प्रकृति का ही विस्तार है। स्थावर सृष्टि के सम्बन्ध में त्रिगुणात्मक प्रकृति के गुण-भेद का वर्णन “क्षर-अक्षर” विचार से अध्याय 8 में किया गया है; तथा जंगम सृष्टि में विशेष रूप से मानव सृष्टि के सम्बन्ध में त्रिगुणात्मक प्रकृति के गुण-भेद का वर्णन क्षेत्र[3]व क्षेत्रज्ञ[4] के विचार से अध्याय 13 में किया गया है। क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के विचार के सिलसिले में भगवान कृष्ण ने अर्जुन को यह समझाया है कि परमब्रह्म परमेश्वर आत्मा-रूप में - जिसे क्षेत्रज्ञ कहते हैं - मनुष्य के पिण्ड या स्थूल शरीर में रहता है; किन्तु यह आत्मा केवल साक्षी, उपदृष्टा व उदासीन रूप में रहता है और विश्व में जो कुछ भी हलचल, व्यापार, क्रिया या चेष्टा का होना दिखाई देता है वह सब त्रिगुणात्मक प्रकृति का कर्तत्त्व है। क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का यह भेद ही प्रकृति व पुरुष का भेद कहा गया है। [5]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अध्याय 14
  2. श्लोक 40
  3. अर्थात मानव शरीर
  4. अर्थात आत्मा
  5. अध्याय 13 श्लोक 20-23

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
- गीतोपदेश के पश्चात भागवत धर्म की स्थिति 1
- भूमिका 66
- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
- श्री गणेश वन्दना 122
1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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