गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
मोक्ष-संन्यास-योग
।। श्लोक 40 से 44 का भावार्थ।। श्लोक 40 से 44 में प्रकृतिजन्य-गुण व स्वभावानुसार जगत का धारण-पोषण तथा व्यवहार सुचारु रूप से नियमानुसार चलते रहने के लिए जिस चतुर्वर्ण व्यवस्था का निर्माण किया गया है और प्रत्येक वर्ण का करणीय कर्तव्य-कर्म नियत व निर्धारित किया गया है उस चतुर्वर्ण अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र की गुणत्रय-विभाग[1] के अनुसार कर्तव्य कर्मों का वर्णन किया गया है। भगवान कृष्ण ने कहा है कि[2]पृथ्वी पर, आकाश में, स्वर्ग में या देवताओं में कोई भी प्राणी या वस्तु ऐसी नहीं है जिसमें प्रकृति के सत्त्व, रज, तम तीनों गुण न होते हों। स्थावर व जंगम सृष्टि जो भी है वह त्रिगुणात्मक प्रकृति का ही विस्तार है। स्थावर सृष्टि के सम्बन्ध में त्रिगुणात्मक प्रकृति के गुण-भेद का वर्णन “क्षर-अक्षर” विचार से अध्याय 8 में किया गया है; तथा जंगम सृष्टि में विशेष रूप से मानव सृष्टि के सम्बन्ध में त्रिगुणात्मक प्रकृति के गुण-भेद का वर्णन क्षेत्र[3]व क्षेत्रज्ञ[4] के विचार से अध्याय 13 में किया गया है। क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के विचार के सिलसिले में भगवान कृष्ण ने अर्जुन को यह समझाया है कि परमब्रह्म परमेश्वर आत्मा-रूप में - जिसे क्षेत्रज्ञ कहते हैं - मनुष्य के पिण्ड या स्थूल शरीर में रहता है; किन्तु यह आत्मा केवल साक्षी, उपदृष्टा व उदासीन रूप में रहता है और विश्व में जो कुछ भी हलचल, व्यापार, क्रिया या चेष्टा का होना दिखाई देता है वह सब त्रिगुणात्मक प्रकृति का कर्तत्त्व है। क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का यह भेद ही प्रकृति व पुरुष का भेद कहा गया है। [5] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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