गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
मोक्ष-संन्यास-योग
आधिभौतिक तथा शारीरिक व सांसारिक सुख के अन्तर्गत वैभव भोग-विलास तथा इन्द्रिय-विषय-भोग को ही सर्वस्व तथा जीवन का एकमात्र लक्ष्य माना जाता है। आधिभौतिक सुख में लिप्त रजोगुण-तमोगुण स्वभाव वाले आसुरी वृत्ति के कहे गए हैं।[1] रजोगुण और तमोगुण से आसक्ति, फलाशा, इच्छा, तृष्णा, राग-द्वेष, काम तथा विषयानुरति होती है; विषयानुरति से काम उत्पन्न होता है; काम से क्रोध, क्रोध से मोह तथा अविवेक; अविवेक से स्मृति-भ्रंश, स्मृति-भ्रंश से बुद्धि का नाश और बुद्धि-नाश से सर्वनाश हो जाता है।[2] भगवान कृष्ण फलाशा, संग व आसक्ति, इच्छा, कामना, वासना, तृष्णा आदि दुःखों से बचने का उपाय यही बताते हैं कि समस्त कामनाओं को त्यागकर ममता-रहित, निस्पृह तथा निरहंकारी होकर इन्द्रिय निग्राहक, संयमी, संयतेन्द्रिय तथा विधेयात्मा होना चाहिए जिससे मनुष्य अत्यानन्द व परम शान्ति पाता है, उसका चित्त सदैव प्रसादमय रहता है और प्रसादमय चित्त रहने से समस्त दुःखों का नाश होता है[3] आधिभौतिक शरीरिक या सांसारिक सुख अनित्य, अपायी व नष्टशील होता है। यह सुख ऊपरी दृष्टि से भले ही अच्छा प्रतीत हो किन्तु इसका परिणाम दुःख होता है अक्षय सुख या अत्यानन्द नहीं होता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अध्याय 16 श्लोक 4 व 7 से 17 तक
- ↑ अध्याय 2 श्लोक 62 व 63
- ↑ अध्याय 2 श्लोक 64, 65 व 71 व अध्याय 3 श्लोक 37 से 40)
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