गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 1074

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय-18
मोक्ष-संन्यास-योग
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आधिभौतिक तथा शारीरिक व सांसारिक सुख के अन्तर्गत वैभव भोग-विलास तथा इन्द्रिय-विषय-भोग को ही सर्वस्व तथा जीवन का एकमात्र लक्ष्य माना जाता है। आधिभौतिक सुख में लिप्त रजोगुण-तमोगुण स्वभाव वाले आसुरी वृत्ति के कहे गए हैं।[1] रजोगुण और तमोगुण से आसक्ति, फलाशा, इच्छा, तृष्णा, राग-द्वेष, काम तथा विषयानुरति होती है; विषयानुरति से काम उत्पन्न होता है; काम से क्रोध, क्रोध से मोह तथा अविवेक; अविवेक से स्मृति-भ्रंश, स्मृति-भ्रंश से बुद्धि का नाश और बुद्धि-नाश से सर्वनाश हो जाता है।[2]

भगवान कृष्ण फलाशा, संग व आसक्ति, इच्छा, कामना, वासना, तृष्णा आदि दुःखों से बचने का उपाय यही बताते हैं कि समस्त कामनाओं को त्यागकर ममता-रहित, निस्पृह तथा निरहंकारी होकर इन्द्रिय निग्राहक, संयमी, संयतेन्द्रिय तथा विधेयात्मा होना चाहिए जिससे मनुष्य अत्यानन्द व परम शान्ति पाता है, उसका चित्त सदैव प्रसादमय रहता है और प्रसादमय चित्त रहने से समस्त दुःखों का नाश होता है[3] आधिभौतिक शरीरिक या सांसारिक सुख अनित्य, अपायी व नष्टशील होता है। यह सुख ऊपरी दृष्टि से भले ही अच्छा प्रतीत हो किन्तु इसका परिणाम दुःख होता है अक्षय सुख या अत्यानन्द नहीं होता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अध्याय 16 श्लोक 4 व 7 से 17 तक
  2. अध्याय 2 श्लोक 62 व 63
  3. अध्याय 2 श्लोक 64, 65 व 71 व अध्याय 3 श्लोक 37 से 40)

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
- गीतोपदेश के पश्चात भागवत धर्म की स्थिति 1
- भूमिका 66
- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
- श्री गणेश वन्दना 122
1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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