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− | [[आत्मा]] बुद्धि और बुद्धि के समस्त आकलनों को और जो कुछ उनसे परे हैं, उन्हें भी जानता है। मनुष्य आत्मनिष्ठ और ध्याननिरत होकर बुद्धि और बुद्धिसम्बन्धी समस्त विषयों से ऊपर उठ जाता है। जो सर्वदा आत्मस्वरुप में ही स्थित है वही जीवन्मुक्त है। जो पुरुष संसार में रहकर भी हंस की भाँति संसार के धर्मों से निर्लिप्त रहता है, वह समस्त भयों के पार पहुँच जाता है। दु:ख, शोक आदि त्रिगुण में ही हैं। आत्मा दु:ख के और त्रिगुण के परे है। धर्म, अर्थ और काम- ये तीनों पुरुषार्थ वास्तव में पुरुषार्थ नहीं हैं, सच्चा पुरुषार्थ तो मोक्ष ही है। जो इनकी आसक्ति छोड़ देता है वही मोक्ष में प्रतिष्ठित होता है। आत्मदर्शन के लिये इन्द्रियों को विषयों से हटाना ही होगा। इसके लिये और दूसरा कोई उपाय नहीं है। आत्मज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई ज्ञान नहीं है। जिसने अपने आत्मा को जान लिया वह कृतार्थ हो गया। ज्ञानी मनुष्य कभी किसी से भयभीत नहीं होते। मुक्ति एक है, सबकी मुक्ति एक-सी है। जो सगुण हैं उनके गुणों की तुलना की जा सकती है। जो निर्गुण हैं उनके गुणों की तुलना किसी प्रकार नहीं की जा सकती। कर्म केवल शारीरिक है। मन के संयोग से वह पाप या पुण्य बन जाता है। उपासना केवल मानसिक है, चाहे जड़ की उपासना कीजिये, चाहे चेतन की। जड़ की उपासना बांधेगी, चेतन की उपासना मुक्त करेगी। ज्ञान बौद्धिक है, चाहे जड़ का ज्ञान प्राप्त करके भटकिये, चाहे आत्मा का ज्ञान प्राप्त करके सदा के लिये शान्त हो जाइये। कर्म की उपासना आन्तरिक है, उपासना की अपेक्षा ज्ञान आन्तरिक है और इन तीनों की अपेक्षा इन तीनों से परे रहना अच्छा है। | + | [[आत्मा]] बुद्धि और बुद्धि के समस्त आकलनों को और जो कुछ उनसे परे हैं, उन्हें भी जानता है। मनुष्य आत्मनिष्ठ और ध्याननिरत होकर बुद्धि और बुद्धिसम्बन्धी समस्त विषयों से ऊपर उठ जाता है। जो सर्वदा आत्मस्वरुप में ही स्थित है वही जीवन्मुक्त है। जो पुरुष संसार में रहकर भी हंस की भाँति संसार के धर्मों से निर्लिप्त रहता है, वह समस्त भयों के पार पहुँच जाता है। दु:ख, शोक आदि त्रिगुण में ही हैं। आत्मा दु:ख के और त्रिगुण के परे है। धर्म, अर्थ और काम- ये तीनों पुरुषार्थ वास्तव में पुरुषार्थ नहीं हैं, सच्चा पुरुषार्थ तो मोक्ष ही है। जो इनकी आसक्ति छोड़ देता है वही [[मोक्ष]] में प्रतिष्ठित होता है। आत्मदर्शन के लिये इन्द्रियों को विषयों से हटाना ही होगा। इसके लिये और दूसरा कोई उपाय नहीं है। आत्मज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई ज्ञान नहीं है। जिसने अपने [[आत्मा]] को जान लिया वह कृतार्थ हो गया। ज्ञानी मनुष्य कभी किसी से भयभीत नहीं होते। मुक्ति एक है, सबकी मुक्ति एक-सी है। जो सगुण हैं उनके गुणों की तुलना की जा सकती है। जो निर्गुण हैं उनके गुणों की तुलना किसी प्रकार नहीं की जा सकती। कर्म केवल शारीरिक है। मन के संयोग से वह पाप या पुण्य बन जाता है। उपासना केवल मानसिक है, चाहे जड़ की उपासना कीजिये, चाहे चेतन की। जड़ की उपासना बांधेगी, चेतन की उपासना मुक्त करेगी। ज्ञान बौद्धिक है, चाहे जड़ का ज्ञान प्राप्त करके भटकिये, चाहे आत्मा का ज्ञान प्राप्त करके सदा के लिये शान्त हो जाइये। कर्म की उपासना आन्तरिक है, उपासना की अपेक्षा ज्ञान आन्तरिक है और इन तीनों की अपेक्षा इन तीनों से परे रहना अच्छा है। |
− | स्वरुप स्थिति के लिये ध्यान की बड़ी आवश्यकता है। उसी कर्म की प्रशंसा है, जिसके करने से ध्यान में बाधा न पड़े। मन की वही स्थिति वांछनीय है जिसमें राग-द्वेष के कारण मन किसी की ओर दौड़ता और किसी से भागता न हो। ध्यान के लिये स्थान ऐसा होना चाहिये, जहाँ स्त्री आदि का संसर्ग तथा ध्यानविरोध वस्तुएँ न हों। शरीर इतना हल्का हो कि उसको स्थिर रखने के लिये खून को दौड़ना न पड़े। अपने सत्कर्म से और शरीर को स्वाभाविक सुगन्ध से उस स्थान के देवता इतने प्रसन्न हों कि ध्यान में किसी प्रकार का विघ्न न डालें। सच्चे हृदय से, आर्तभाव से ध्यान के लिये परमात्मा से ऐसी प्रार्थना कर ली जाये कि 'प्रभो! मेरी वृत्तियों को अपने में लगा लो। | + | स्वरुप स्थिति के लिये ध्यान की बड़ी आवश्यकता है। उसी कर्म की प्रशंसा है, जिसके करने से ध्यान में बाधा न पड़े। मन की वही स्थिति वांछनीय है जिसमें राग-द्वेष के कारण मन किसी की ओर दौड़ता और किसी से भागता न हो। ध्यान के लिये स्थान ऐसा होना चाहिये, जहाँ स्त्री आदि का संसर्ग तथा ध्यानविरोध वस्तुएँ न हों। शरीर इतना हल्का हो कि उसको स्थिर रखने के लिये खून को दौड़ना न पड़े। अपने सत्कर्म से और शरीर को स्वाभाविक सुगन्ध से उस स्थान के [[देवता]] इतने प्रसन्न हों कि ध्यान में किसी प्रकार का विघ्न न डालें। सच्चे हृदय से, आर्तभाव से ध्यान के लिये परमात्मा से ऐसी प्रार्थना कर ली जाये कि 'प्रभो! मेरी वृत्तियों को अपने में लगा लो। |
| style="vertical-align:bottom;"| [[चित्र:Next.png|right|link=भीष्म पितामह -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 98]] | | style="vertical-align:bottom;"| [[चित्र:Next.png|right|link=भीष्म पितामह -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 98]] |
16:52, 31 मार्च 2018 के समय का अवतरण
विषय सूची
श्री भीष्म पितामह -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती
पितामह का उपदेशआत्मा बुद्धि और बुद्धि के समस्त आकलनों को और जो कुछ उनसे परे हैं, उन्हें भी जानता है। मनुष्य आत्मनिष्ठ और ध्याननिरत होकर बुद्धि और बुद्धिसम्बन्धी समस्त विषयों से ऊपर उठ जाता है। जो सर्वदा आत्मस्वरुप में ही स्थित है वही जीवन्मुक्त है। जो पुरुष संसार में रहकर भी हंस की भाँति संसार के धर्मों से निर्लिप्त रहता है, वह समस्त भयों के पार पहुँच जाता है। दु:ख, शोक आदि त्रिगुण में ही हैं। आत्मा दु:ख के और त्रिगुण के परे है। धर्म, अर्थ और काम- ये तीनों पुरुषार्थ वास्तव में पुरुषार्थ नहीं हैं, सच्चा पुरुषार्थ तो मोक्ष ही है। जो इनकी आसक्ति छोड़ देता है वही मोक्ष में प्रतिष्ठित होता है। आत्मदर्शन के लिये इन्द्रियों को विषयों से हटाना ही होगा। इसके लिये और दूसरा कोई उपाय नहीं है। आत्मज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई ज्ञान नहीं है। जिसने अपने आत्मा को जान लिया वह कृतार्थ हो गया। ज्ञानी मनुष्य कभी किसी से भयभीत नहीं होते। मुक्ति एक है, सबकी मुक्ति एक-सी है। जो सगुण हैं उनके गुणों की तुलना की जा सकती है। जो निर्गुण हैं उनके गुणों की तुलना किसी प्रकार नहीं की जा सकती। कर्म केवल शारीरिक है। मन के संयोग से वह पाप या पुण्य बन जाता है। उपासना केवल मानसिक है, चाहे जड़ की उपासना कीजिये, चाहे चेतन की। जड़ की उपासना बांधेगी, चेतन की उपासना मुक्त करेगी। ज्ञान बौद्धिक है, चाहे जड़ का ज्ञान प्राप्त करके भटकिये, चाहे आत्मा का ज्ञान प्राप्त करके सदा के लिये शान्त हो जाइये। कर्म की उपासना आन्तरिक है, उपासना की अपेक्षा ज्ञान आन्तरिक है और इन तीनों की अपेक्षा इन तीनों से परे रहना अच्छा है। स्वरुप स्थिति के लिये ध्यान की बड़ी आवश्यकता है। उसी कर्म की प्रशंसा है, जिसके करने से ध्यान में बाधा न पड़े। मन की वही स्थिति वांछनीय है जिसमें राग-द्वेष के कारण मन किसी की ओर दौड़ता और किसी से भागता न हो। ध्यान के लिये स्थान ऐसा होना चाहिये, जहाँ स्त्री आदि का संसर्ग तथा ध्यानविरोध वस्तुएँ न हों। शरीर इतना हल्का हो कि उसको स्थिर रखने के लिये खून को दौड़ना न पड़े। अपने सत्कर्म से और शरीर को स्वाभाविक सुगन्ध से उस स्थान के देवता इतने प्रसन्न हों कि ध्यान में किसी प्रकार का विघ्न न डालें। सच्चे हृदय से, आर्तभाव से ध्यान के लिये परमात्मा से ऐसी प्रार्थना कर ली जाये कि 'प्रभो! मेरी वृत्तियों को अपने में लगा लो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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