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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
त्रयोदश शतकम्
अहो! मानो सब कुछ लुट गया हो- इस प्रकार उच्च स्वर से क्रन्दन करते हुए, लोटते हुए, भूमि पर नेत्रों से हर क्षण अश्रु धारा प्रवाहित करते हुए, निरन्तर श्रीवृन्दावन के विरह दुख में व्याकुल रहकर जो कहीं अन्यत्र भी वास नहीं करता है, वही केवल इस पृथ्वी पर अपना यश फैला सकता है।।37।।
श्रीराधा के विग्रह से जो महाश्चर्यमय सुगन्धि फैल रही है, उसमें लुब्ध होकर उसके पीछे उड़ते हुए अनेक भ्रमरों को हटाने में हाथों को चलाती हुई एवं श्रीवृन्दावन की वीथियों में परम कौतुक वशतः प्रफुल्लित नेत्रों ने कटाक्ष करती हुई श्रीराधा ही एकमात्र प्रियतम के साथ विलास कर रही है।।38।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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