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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
त्रयोदश शतकम्
हे सखे! यह श्रीराधा-माधव की केलि भूमि कोटि पूर्ण चंद्र प्रभायुक्त है एवं स्वच्छ है। यह शोक-मोह, जरा-मृत्यु तथा क्षुधा पिपासा- इन छः उर्मियों से रहित है, अहो ! यहाँ तरंगमय प्रेमामृत सागर प्रवाहित हो रहा है, नाना आश्चर्यमय सरोवर, नदी गिरि, लतागुल्म वृक्षादि द्वारा तथा महानन्द पूर्वक क्रीड़ा परायणा पक्षि-मृगादि के द्वारा यह परिशोभित हो रही है इसका स्मरण कर।।35।।
हे वृन्दावन-नवनिकुंजेश्वरी! मुझ हतभागी दास पर कृपा कीजिये। इस भाव से लोक व्यवहार करते समय भी बार-बार उच्च क्रन्दन करते करते तीनों काल श्रीवृन्दावन की ओर मुख करके उसकी रज में सातिशय प्रेमपूर्वक बार बार साष्टांग नमस्कार कर।।36।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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