श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 172

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
पंचम अध्याय

न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्।
स्थिरबुद्धिरसंमूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः॥20॥
जो न तो प्रिय वस्तु को पाकर हर्षित होता है और न अप्रिय को पाकर विचलित होता है, जो स्थिरबुद्धि है, जो मोहरहित और भगवद्विद्या को जानने वाला है वह पहले से ही ब्रह्म में स्थित रहता है।

भावानुवाद- लौकिक प्रिय और अप्रिय वस्तुओं में ज्ञानी के समत्व बुद्धि को प्रदर्शित करते हुए ‘न प्रहृष्येत्’ इत्यादि कह रहे हैं। ‘न प्रहृष्येत्’ का तात्पर्य है-आनन्दित नहीं होते हैं और ‘नोद्धिजेत्’ का तात्पर्य है-उद्विग्न नहीं होते हैं। अथवा, साधनदशा में ही उसका अभ्यास करना उचित है-इस इच्छा से विधिलिंग क्रिया का व्यवहार हुआ है। हर्ष-शोकादि के अभिमान से लोग सम्मोहित होते हैं, अतः इसके अभाव में ज्ञानिगण मोहरहित होते हैं।।20।।

बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते॥21॥
ऐसा मुक्त पुरुष भौतिक इन्द्रियसुख की ओर आकृष्ट नहीं होता, अपितु सदैव समाधि में रहकर अपने अन्तर में आनन्द का अनुभव करता है। इस प्रकार स्वरूपसिद्ध व्यक्ति परब्रह्म में एकाग्रचित्त होने के कारण असीम सुख भोगता है।

भावानुवाद- वे विषयसुख में अनासक्तमना होते हैं। उसका कारण यह है कि परमात्मा को प्राप्त करने से जीवात्मा को जो सुख प्राप्त होता है, वह अक्षय सुख होता है। वे उसे ही प्राप्त करते हैं। निरन्तर अमृत का आस्वादन करने वाले को भला क्या मिट्टी खाने में रुचि होगी?।।21।

सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-

शब्द-स्पर्श आदि बाह्य विषयसमूह केवल इन्द्रियों की सहायता से ही अनुभूत होते हैं। वे आत्मधर्म नहीं हैं। जो लोग बाह्य विषयों से अनासक्त होकर भीतर-ही-भीतर अपनी आत्मासत्ता में परमात्मा के दर्शन से उत्पन्न अनुभव के सुख में निमग्न रहते हैं, वे विषयों के सुखभोग की तो बात दूर रहे, उनका स्मरण भी नहीं करते हैं। ‘परं दृष्ट्वा निवर्त्तते’[1]के अनुसार वे भगवत-सेवारूप श्रेष्ठ रस में निमग्न होने के कारण प्राकृत विषयसुखरूप रस से सर्वथा उदासीन रहते हैं।।21।।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 2/59

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अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

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