श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
प्रथम अध्याय
धृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव: ।
मामका: पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ॥1:1॥
धृतराष्ट्र बोले- हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्रित, युद्ध की इच्छा वाले मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया ? ॥1:1॥
विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर कृत सारार्थ वर्षिणी टीका का भावानुवाद
अपना (श्रीकृष्ण) नाम प्रदान पृथ्वी के अंधकार को दूर करने वाले, कुमुद सदृश भक्तों का आनंदवर्द्धन करने वाले, प्रेम-सुधा के आगार, उन्नत-उज्ज्वल-रस प्रदानकारी श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु मेरे हृदय में विलास करें।
अज्ञ होने पर भी मैं संयासी-शिरोमणि श्रीगोरांगसुन्दर के मतानुयायी होकर प्रचीन वैष्ण्वाचार्यों के विचारों का विवेचन करते हुए गीता रूप अमृत का लेशमात्र पान करने के लिए लुब्ध हुआ हूँ। अत: साधुगण मुझ शरणागत को क्षमा करें।
जिनके श्रीचरणकमलों का भजन ही सभी शास्त्रों का अभिमत है, वे नराकृति परब्रह्म भगवान श्रीकृष्ण श्रीवासुदेवनंदन के रूप में श्रीगोपालपुरी में अवतीर्ण हुए। परम अतर्क्य तथा अधोक्षज होने पर भी योगमाया के माध्यम से वे जनसाधारण दृष्टिअगोचर हुए एवं इस गीता का उपदेश देकर भवसागर में निमग्न जगज्जीवों का उद्धार कर अपने सौंदर्य-माधुर्यदिक के आस्वादन द्वारा उन्हें प्रेमरूपी महासागर में निमज्जित कराया। सज्जननों की रक्षा तथा दुर्जनों के सहांर के लिए प्रतिज्ञाबद्ध होकर वे अवतरित हुए। परंतु, भू-भार-हरण की छलना से उन्होंने दुष्टों, भगवदविद्वेषियों तथा कुम्भीपाक नरक के समान संसाररूपी महासागर के दु:खों में निमग्न जीवों के लिए मुक्तिदान रूपी परम रक्षा का ही कार्य किया।
अपनी अन्तर्द्धान लीला के पश्चात अनादिकाल से अविद्या तथा शोक-मोहादि से ग्रस्त जीवों का उद्धार करने तथा मुनियों द्वारा शास्त्रों में कृत यशोगान को धारण करने के लिये भगवान श्रीकृष्ण ने स्वेच्छापूर्वक शोक-मोहादि को अगिंकार करने वाले अपने प्रिय परिकर अर्जुन का लक्ष्यकर गीताशास्त्र का उपदेश किया। इस गीता के तीन भाग हैं- कर्मयोग, ज्ञानयोग तथा भक्तियोग। भगवान श्रीकृष्ण ने सभी वेदों के तात्पर्य को गीता के अठारह अध्यायों में अठारह विद्याओं से समन्वितकर परम पुरुषार्थ का निरूपण किया है। इस गीता शास्त्र के प्रथम छह अध्यायों निष्माक कर्मयोग तथा अंतिम छह अध्यायों में ज्ञानयोग प्रदशित हुए हैं। इन दोनों योगो से भी अधिक रहस्यमय एवं सुदुर्लभ भक्तियोग को इनके बीच में रखा गया है। यह भक्ति-ज्ञान और कर्म की भी जीवनदायिनी है। कर्म तथा ज्ञान भक्ति रहित होने पर व्यर्थ हैं। अत: भक्तिमिश्रित होने पर ही ये दोनों आंशिकरूप में स्वीकृत हैं। भक्ति दो प्रकार की होती है- केवला एवं प्रधानीभूता। केवला (आद्या) भक्ति स्वंय ही स्वतन्त्र एवं परम प्रबला है; इसे कर्म तथा ज्ञान की सहायता की कोई आवश्यकता नहीं हैं। अत: इसे परम प्रबला, अकिञ्चना तथा अनन्या आदि संज्ञाओं से भी अभिहित किया जाता है। परन्तु दूसरी प्रधानीभूता भक्ति कर्म तथा ज्ञान से मिश्रित होती है- आगे इसका भलीभाँति विचार किया जायेगा।
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