श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
चतुर्दश अध्याय
श्रीभगवानुवाच-
परं भूय: प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम् ।
यज्ज्ञात्वा मुनय: सर्वे परां सिद्धिमितो गता: ॥1॥
श्रीभगवान बोले- ज्ञानों में भी अति उत्तम उस परम ज्ञान को मैं फिर कहूँगा, जिसको जानकर सब मुनिजन इस संसार से मुक्त होकर परम सिद्धि को प्राप्त हो गये हैं ॥1॥
भावानुवाद- माया के तीनों गुण ही बन्धन के कारण हैं- ऐसा उनके फल से ही अनुमानित होता है। भक्ति उन तीनों गुणों के विनाश होने के लक्षणों का कारण है, यही इस चौदहवें अध्याय में वर्णित हो रहा है।
पिछले अध्याय में कहा गया है कि ‘कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’[1]अर्थात् गुणों में आसक्ति ही जीव के शुभ-अशुभ योनियों में जाने का कारण है। वहाँ गुण कौन से हैं, गुणसंग किस प्रकार का है, किस गुणसंग का क्या फल है, गुणयुक्त के क्या लक्षण हैं, गुणों से किस प्रकार मुक्ति लाभ हो? इन बातों की अपेक्षाकर बाद में कही जाने योग्य बातों को विस्तारपूर्वक कहने की प्रतिज्ञा कर रहे हैं-‘परम’ इत्यादि। ‘ज्ञानम्’ का तात्पर्य है-जिसके द्वारा जाना जाय अर्थात् उपदेश ‘परम्’-अति उत्तम।।1।।
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-
तेरहवें अध्याय में यह स्पष्ट बताया जा चुका है कि साधारण व्यक्ति भी सत्संग में शरीर, शरीरी अर्थात् जीवात्मा और परमात्मा को तत्त्वतः जान लेने पर भवबन्धन से मुक्त हो सकता है। जीव प्रकृति के गुणों के संग से ही भौतिक जगत् में बद्ध हुआ है। इस अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण भक्त अर्जुन को यह विस्तारपूर्वक बता रहे हैं, कि प्रकृति के गुण कौन-कौन हैं, वे किस प्रकार क्रिया करते हैं, किस प्रकार जीव को बाँधते हैं तथा किस प्रकार से जीव इन गुणों से मुक्त होकर परमगति को प्राप्त करता है। इस ज्ञान को प्राप्त कर अनेक ऋषि-मुनियों ने सिद्धि प्राप्त की है तथा परमपद को प्राप्त कर चुके हैं। इस ज्ञान को जान लेने पर साधारण लोग भी गुणों से अतीत होकर परम पद को प्राप्त कर लेते हैं।।1।।
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