श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
नवम अध्याय
इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यसूयवे।
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।।
श्रीभगवान ने कहा– हे अर्जुन! चूँकि तुम मुझसे कभी ईर्ष्या नहीं करते, इसीलिए मैं तुम्हें यह परम गुह्यज्ञान तथा अनुभूति बतलाऊँगा, जिसे जानकर तुम संसार के सारे क्लेशों से मुक्त हो जाओगे।
भावानुवाद- प्रभु के दास भगवान की आराधना के लिए जिस ऐश्वर्य को जानने की अपेक्षा करते हैं, उसे तथा शुद्ध भक्ति के उत्कर्ष को इस नवम् अध्याय में स्पष्ट रूप से कहा गया है।
कर्म, ज्ञान, योग आदि की अपेक्षा भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ है। वह भक्ति दो प्रकार की है - प्रधानीभूता और केवला। इनका वर्णन सप्तम तथा अष्टम अध्यायों में हुआ है। उनमें केवला भक्ति अतिशय प्रबला है तथा ज्ञान की भाँति अन्तःकरण शुद्ध होने की अपेक्षा नहीं रखती। अतएव स्पष्टतः यह केवल भक्ति सबसे श्रेष्ठ है। इसके लिए अपेक्षित भगवान् के ऐश्वर्य का वर्णन नवम् अध्याय में प्रारम्भ कर रहे हैं। बीच के आठ अध्याय समस्त शास्त्रों का सार गीता शास्त्र के भी सार हैं। नवम् तशथाद दम अध्याय इनके भी सार स्वरूप हैं। अतः ‘इद तु’ इत्यादि तीन श्लोकों में निरूपित किये जाने वाले विषय की प्रशंसा कर रहे हैं -द्वितीय तथा तृतीय अध्याय में मोक्ष के उपयोगी ज्ञान को ‘गुह्य’ बताया गया। सप्तम तथा अष्टम अध्याय में मुझे प्राप्त कराने के उपयोगी ज्ञान का वर्णन हुआ, जिससे भगवत्-तत्त्व का ज्ञान होता है तथा ऐसे भक्ति-तत्त्व को ‘गुह्यतर’ बताया गया।
किन्तु यहाँ केवल शुद्धभक्ति के लक्षण वाले ज्ञान को कहूँगा, जो कि ‘गुह्यतम’ है। यहाँ ज्ञान शब्द की व्याख्या से भक्ति को ही समझना चाहिए, न कि प्रथम छह अध्यायों में कथित प्रसिद्ध ज्ञान। अगले श्लोक में ‘अव्यय’ अर्थात् ‘अनश्वर’ विशेषण का प्रयोग होने से गुणातीत होने के कारण ज्ञान से भक्ति को ही लक्ष्य किया जा रहा है, न कि पूर्व कथित ज्ञान को, क्योंकि वह ज्ञान सात्त्विक होता है, निर्गुण या गुणातीत नहीं। ‘अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप’ इस अग्रिम श्लोक में ‘धर्म’ शब्द से भी भक्ति ही कही गई है। यहाँ ‘अनसूयवे’ अर्थात् ‘अमत्सर’ कहने का तात्पर्य है - मत्सरता से रहित व्यक्ति के लिए ही यह उपदेश है, दूसरे के लिए नहीं। ‘विज्ञान सहित’ अर्थात् मेरे अपरोक्षानुभव पर्यन्त इस उपदेश को सुनाऊँगा, जो तुम्हें इस अशुभ, भक्ति प्रतिबन्धक संसार से मुक्त कर देगा अर्थात् तुम सभी प्रकार के विघ्नों से रहित हो जाओगे।।1।।
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