श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
दशम अध्याय
श्रीभगवानुवाच
भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वचः।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया ॥1॥
श्रीभगवान ने कहा– हे महाबाहु अर्जुन! और आगे सुनो। चूँकि तुम मेरे प्रिय सखा हो, अतः मैं तुम्हारे लाभ के लिए ऐसा ज्ञान प्रदान करूँगा, जो अभि तक मेरे द्वारा बताये गये ज्ञान से श्रेष्ठ होगा।
भावानुवाद- सप्तम आदि पूर्व अध्यायों में ऐश्वर्य ज्ञापन पूर्वक जिस भक्ति-तत्त्व के विषय में कहा गया है, वही रहस्य सहित भगवद् विभूति नामक दशम अध्याय में वर्णित हो रहा है।
सप्तमादि अध्यायों में आराध्यत्व-ज्ञान के कारण स्वरूप जिस ऐश्वर्यादि के सम्बन्ध में कहा गया है, भक्तिमान् व्यक्तियों के आनन्द के लिए उसका ही विशद् रूप में वर्णन कर रहे हैं। “ऋषियों की वाणी परोक्ष रूप होती है और मुझे भी परोक्ष ही प्रिय है।” - श्रीमद्भागवत [1] की इस उक्ति के अनुसार विषय के थोड़ा दुर्बोध होने के कारण ही कहते हैं - ‘भूयः’ अर्थात् ‘राजविद्या राजगुह्यमिदम्’ को पुनः कह रहा हूँ। हे महाबाहो! जिस प्रकार तुमने सबकी अपेक्षा अधिक बाहुबल का प्रकाश किया है, उसी प्रकार यहाँ भी तुम सबसे अधिक बुद्धिबल का प्रकाश करने के योग्य हो। श्रवणशील तुमको जो कहा जा रहा है, उसे भलीभाँति अवधारणा करने के लिए ही ‘शृणु’ कहा जा रहा है। ‘परमम्’ का तात्पर्य है - पूर्वकथित विषय से भी उत्कृष्ट।।1।।
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-
सप्तम, अष्टम और नवम अध्यायों में भजनीय परमेश्वर-तत्त्व के ऐश्वर्यादि का वर्णन कर दशम अध्याय में उनकी विभूतियों का वर्णन किया जा रहा है। किसी महान्, परम दुर्लभ एवं अदेय वस्तु को गुप्त रखकर प्रकारान्तर रूप से वर्णन करने का नाम परोक्षवाद है- सन्दर्भ। इसलिए परोक्षवाद वेद का एक स्वभाव है। आत्म गोपन करना भी भगवान् का एक स्वभाव है। श्री चैतन्य चरितामृत में यह कहा गया है- ‘आपना लुकाइते कृष्ण नाना यत्न करे।’ परोक्ष वाद में वर्णित विषय सामान्य लोगों के लिए दुर्बुद्ध है, परन्तु आत्म गोपन करने की चेष्टा करने पर भी भगवान् भक्तों के निकट प्रकाशित होते हैं- ‘तथापि ताहार भक्त जानये तौहारे।’ इसलिए भक्ति का आश्रय कर विशेष मनोयोग पूर्वक इस विभूति-योग-अध्याय का अनुशीलन करना आवश्यक है।।1।।
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