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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
पञ्चदश अध्याय
श्रीभगवानुवाच-
ऊर्द्ध्वमूलमध:शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥1॥
श्रीभगवान बोले- आदि पुरुष परमेश्वर रूप मूल वाले और ब्रह्म रूप मुख्य शाखा वाले जिस संसार रूप पीपल के वृक्ष को अविनाशी कहते हैं; तथा वेद जिसके पत्ते कहे गये हैं- उस संसार रूप वृक्ष को जो पुरुष मूल सहित तत्त्व से जानता है, वह वेद के तात्पर्य को जानने वाला है ॥1॥
भावानुवाद- श्रीकृष्ण संसार के बंधन को छेदने वाले तथा असंग हैं। आत्मा अर्थात जीव ईश्वर अंश है। कृष्ण ही क्षर तथा अक्षर दोनों से उत्कृष्ट पुरुष हैं। ये सब बातें पन्द्रहवें अध्याय में आलोचित हुई हैं।
पिछले अध्याय [1] में कहा गया कि जो अनन्य भक्ति से मेरी उपासना करते हैं, वे तीनों गुणों का अतिक्रमण कर ब्रह्मानुभूति के योग्य होते हैं। वहाँ यदि यह प्रश्न हो कि भक्ति योग द्वारा मनुष्य रूप आपकी उपासना करने से ब्रह्माभाव किस प्रकार प्राप्त होता है, तो इसका उत्तर यह है कि वास्तव में मैं मनुष्य ही हूँ, किंतु मैं उस ब्रह्म की भी प्रतिष्ठा अर्थात परम् आश्रय हूँ इस सूत्रवाक्य के वृत्तिरूप यह पंद्रहवाँ अध्याय आरम्भ हो रहा है। वहाँ [2] यह कहा गया है कि वे गुणसमूह का अत्तिक्रम कर ब्रह्मानुभव के योग्य होते हैं। तो, यह गुणमय संसार क्या है? यह कहाँ से उत्पन्न हुआ है? उनकी भक्ति द्वारा संसार का अतिक्रमण करने वाले जीव कौन हैं? इन प्रश्नों की अपेक्षा में सर्वप्रथम अतिशयोक्ति अलंकार द्वारा संसार का वर्णन करते हुए कहते हैं कि यह संसार अद्भुत अश्वत्थ वृक्ष है।
सभी लोकों से ऊपर सत्यलोक में प्रकृति रूप बीज से उत्थित प्रथम प्ररोहरूप (अंकुर) वह महत्-तत्त्वात्मक चतुर्मुख एक ही मूलवाला है। 'अध:' अर्थात स्वर्ग-भुव:, भूलोक आदि में अनंत देवता, गंधर्व, किन्नर, असुर, राक्षस, प्रेत-भूत, मनुष्य, गाय, अश्व आदि पशु, पक्षी, कृमि, कीट, पतंग, स्थावर तक इसकी शाखाएँ हैं। धर्म आदि चारों पुरुषार्थों को सम्पन्न करने वाला होने के कारण यह उत्तम कहलाता है। इसका दूसरा अर्थ इस प्रकार है - भक्तिमान लोगों के लिए यह संसार आगामी कल नहीं रहेगा अर्थात नष्टप्राय है, किंतु अभक्तों के लिए यह 'अव्ययम' अर्थात अनश्वर है। 'छंदांसि' - ऐश्वर्यकामी पुरुष श्वेत छाग (बकरा) द्वारा वायु देवता का यज्ञ करेंगे, सन्तानकामी व्यक्ति एकादश इंद्र देवताओं का यज्ञ करेंगे - इन कर्म-प्रतिपादकों का वर्णन वेदों में है। अत:संसार का वर्द्धन करने वाला होने के कारण वेद वृक्ष के पत्ते के समान हैं। पत्र द्वारा ही वृक्ष शोभा पाता है, जो यह जानते हैं। कठोपनिषद [3] में भी कहा गया है- यह संसार ऊपर मूलवाला, नीचे शाखा वाला, सनातन अश्वत्थ वृक्ष है।
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