श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
पंचम अध्याय
ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः॥22॥
बुद्धिमान मनुष्य दुख के कारणों में भाग नहीं लेता जो कि भौतिक इन्द्रियों के संसर्ग से उत्पन्न होते हैं। हे कुन्तीपुत्र! ऐसे भोगों का आदि तथा अन्त होता है, अतः ;तात्पर्य
भावानुवाद- विवेकवान् पुरुष वस्तुतः विषयसुख में आसक्त नहीं होते हैं, इसीलिए ‘ये हि’ इत्यादि कर रहे हैं।।22।।
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति- इन्द्रियों के द्वारा विषयों के संस्पर्श से जो सुख प्राप्त होते हैं, उन्हें संस्पर्श मोक्ष कहते हैं। ऐसे सुख आदि और अन्तवाले होते हैं। ये विषयों के साथ इन्द्रियों का संस्पर्श होने से उत्पन्न होते हैं तथा वियोग होने पर उनका अभाव हो जाता है। अतएव पण्डित व्यक्ति क्षणभंगुर आपात रमणीय इन विषय-सुखों में आसक्त नहीं होते, वे केलव देहयात्रा के निर्वाहक के लिए निष्काम होकर इन्द्रिय-सम्बन्धी कर्मों को स्वीकार करते हैं।।22।।
शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्।
कामक्रोधद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः॥23॥
यदि इस शरीर को त्यागने के पूर्व कोई मनुष्य इन्द्रियों के वेगों को सहन करने तथा इच्छा एवं क्रोध के वेग को रोकने में समर्थ होता है, तो वह इस संसार में सुखी रह सकता है।
भावानुवाद- संसारसिन्धु में पतित होने पर भी ये योगी हैं और सुखी हैं, इसलिए ‘शक्नोति’ इत्यादि कह रहे हैं।।23।।
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-
विषयसुख के अनुकूल विषयों को प्राप्त करने के लिए जो रागमयी अभिलाषा या तृष्णा होती है, उसे ही यहाँ काम या लोभ कहा गया है। स्त्री-पुरुष के परस्पर सम्मिलन से सुख प्राप्त करने की वासना काम शब्द का निगूढ़ अर्थ है। सभी प्रकार की वासनाओं को लक्ष्यकर ही यहाँ काम शब्द का प्रयोग हुआ है। भोगसुख के प्रतिकूल विषयों के सम्बन्ध में मन के अत्यधिक द्वेष को क्रोध कहते हैं। मृत्युकाल तक जो लोग काम और क्रोध के वेग को सहन करते हैं, वे ही योगी या सुखी हैं।।23।।
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