श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
पंचम अध्याय
विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः॥
विनम्र साधुपुरुष अपने वास्तविक ज्ञान के कारण एक विद्वान तथा विनीत ब्राह्मण गाय, हाथी, कुत्ता तथा चाण्डाल को समान दृष्टि (समभाव) से देखते हैं।
भावानुवाद- उसके बाद में वे गुणातीत हो जाते हैं और गुणमय वस्तु-मात्र में जो गुणों का तारतम्य है, उसे ग्रहण करने में अनिच्छुक हो जाते हैं। ऐसी वस्तुओं में वे समबुद्धिवान् होंगे, इसलिए ‘विद्या विनय’ इत्यादि कह रहे हैं। ब्राह्मण और गाय सात्त्विक जाति के कहे जाते हैं, हाथी मध्यम अर्थात् राजस है और कुत्ता एवं चाण्डाल तामस जाति के हैं, अतः अधम हैं। किन्तु, गुणातीत पण्डितगण उनकी इन विशेषताओं को ग्रहण नहीं करते हैं, अपितु, गुणातीत ‘ब्रह्म’ को सर्वत्र देखने के कारण वे समदर्शी कहलाते हैं।।18।।
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-
ज्ञानी व्यक्तियों का दर्शन किस प्रकार का होता है-इसको ही उपरोक्त श्लोक में बताया जा रहा है। यहाँ ‘समदर्शी’ शब्द का तात्पर्य है- (1) सभी देहों में भगवान् की तटस्था शक्ति से प्रकटित एक ही स्वरूपविशिष्ट जीवात्मा वास करते हैं-ऐसे आत्मदर्शी पुरुष ही समदर्शी हैं। भगवान ने आगे गीता[1]में इसे और भी स्पष्ट किया है।
(2) ब्रह्मदर्शी-
‘ब्राह्मणे पुक्कसे स्तेने ब्रह्मण्येऽर्क स्फुलिंगके।
अक्रूरे क्रूरके चैव समदृक् पण्डितो मतः।।’[2]
अर्थात्, जो ब्राह्मण और चाण्डाल, चोर और ब्राह्मण, सूर्य की किरण और अग्नि की चिंगारी और क्रूर तथा अक्रूर को भी एक समान देखता है, मेरे मत में वह पण्डित है। श्रीविश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ‘समदृक्’ का अर्थ इस प्रकार करते हैं-मुझे परब्रह्म को सर्वत्र ही एकरूप में दर्शन करना। ऐसे दृष्टि से सम्पन्न व्यक्ति को समदर्शी कहा जाता है।।18।।
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः॥19॥
जिनके मन एकत्व तथा समता में स्थित हैं उन्होंने जन्म तथा मृत्यु के बन्धनों को पहले ही जीत लिया है। वे ब्रह्म के समान निर्दोष हैं और सदा ब्रह्म में ही स्थित रहते हैं।
भावानुवाद- श्रीभगवान यहाँ समदृष्टित्व की प्रशंसा कर रहे हैं। इस लोक में ही जिसकी सृष्टि हुई है, उसे सर्ग कहते हैं। ‘जितः’ का तात्पर्य है-पराभूत करना।।19।।
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति- ‘इहलोक में ही’ का तात्पर्य है-इसी लोक में जीवित अवस्था में ही अथवा साधन दशा में ही वे संसार-बन्धन से मुक्त हो जाते हैं।।19।।
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