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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
रासलीला-चिन्तन-2
जब भोग और मोक्ष की स्पृहा रूपी पिशाची जीव के हृदय में वर्तमान है; जागरूक है तब तक प्रेमसुख के आस्वादन का अवसर ही नहीं आता। तो चैतन्य भगवान के जीवन में आया कि
भुक्ति-मुक्ति की वांछना यदि मन में वर्तमान होती है तो साधना करने पर प्रेम उत्पन्न नहीं होता। ज्ञान मिल जायेगा। भगवान के गुण, लीला श्रवण से जिनका चित्त भगवान के गुणों पर मुग्ध हो गया और किसी प्रकार भी कोई विवेचना न करके, तर्क न करके, इसमें क्या लाभ होगा, इसमें क्या हानि होगी-इस प्रकार सोच-विचार न करके जिसका चित्त भगवान की सेवा प्राप्ति के लिये व्याकुल हो गया, भगवान को अपना बनाने के लिये जिनका जीवन मचल उठा। ऐसे एकमात्र वही लोग हैं जो सारी ममता भगवान को अर्पणकर सकते हैं नहीं तो कुछ-कुछ रख लेते हैं। अगर बोलें! इनको सुखी बनाने से अपने को ‘सुख हो जायेगा। तो अपने सुख की ममता रह गयी। और अपने सुख की जब तक ममता है चाहे किसी वस्तु में नहीं हो। अपने सुख की भावना में यदि ममता है तो ममता का पूर्ण समर्पण हुआ नहीं। यह तो तब होता है जब सेव प्राप्ति के लिये चित्त व्याकुल हो जायेगा। हमारा तो उनकी सेवा के लिये ही सब कुछ है। सेवा प्राप्ति के लिये जब चित्त व्याकुल होता है तब सेव्य का सुख सामने आता है। तब सेव्य के सुख के लिये ममता का समर्पण पूरा होता है। ऐसे जो भाग्यवान जीव हैं वे सब प्रकार की ममता समर्पण करके प्रेमरस में निमग्न रहने का सौभाग्य प्राप्त करते हैं। ऐसे भाग्यवानों में न तो भुक्ति की वांछा रहती है और न मुक्ति की और न सिद्धि लाभ की अथवा देह-देहादि में आवेश जनित महादुःख की। देह में और दैहिक पदार्थों में जो आवेश जनित दुःख है इसको सुख मान रखा है। देह में और देहादिक पदार्थों में जो आवेश जनित भाव है यही महादुःख है। सारे दुःखों का जन्म यहीं से होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ चैतना चरितामृत 2।19।150
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