रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 86

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन


इस ओर नहीं देखते हैं इसको सुख मान लेते है। लेकिन जो भाग्यवान व्यक्ति हैं वे कहते हैं कि भई! हमको इसकी परवाह नहीं। हमको चाहे जो बना दो। विद्या पति ने एक पद में कहा है बड़ा सुन्दर कि-
यह मानुष पशु पांखी जन्मे अथवा कीट-पतंग।
कर्म विपाके गतागति पुन पुन मतिर्हुत्वा प्रसंग।।
यह मैथिली भाषा में है। कहते हैं कि प्रेमास्पद भगवान! हमें इस बात की चिन्ता नहीं कि जन्में, मनुष्य बने, पशु बने पक्षी बने अथवा कीट-पतंग बने अथवा कर्म के विपाक से बारम्बार हमारा आना जाना होता रहे परन्तु हमारा मन तुम में लगा रहे, बस। हमारा मन तुम में लगा रहे और गति-वति कुछ भी हो। इस प्रकार के जब मनोगत भाव होता है तब प्रेम सच्चा। तुलसीदास जी महाराज ने कहा है-
कुटिल करम लैं जाहि मोहि जँह जँह अपनी बरिआई।
तँह तँह जनि छिन छोह छाँड़ियो, कमठ अंडकी नाई।।[1]

इस प्रकार से जो भगवान को अपना सर्वस्व अर्पण करके, सारी ममता उन्हें देकर श्रीभगवान के चरण-सेवा की आकांक्षा ही जो रखते हैं उनके इस प्रकार के चित्त की जो गति है उसका नाम है ‘शुद्धा भक्ति।’ उसका नाम है निर्गुणाभक्ति’, प्रेमाभक्ति। यह भक्ति रहती है श्रीगोपांगनाओं में इसलिये इस प्रसंग में यहाँ पर श्रीकृष्ण भगवान का रमण-रसास्वादन है- यह श्रीगोपांगनाओं में स्वरूपानन्द वितरण है। यह यहाँ रमण का अर्थ है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. विनय पत्रिका/103

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