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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
रासलीला-चिन्तन-2
देह में अहम बुद्धि विहीन ब्रह्मज्ञान सम्पन्न सिद्धों में भी श्रीनारायण सेवन परायण प्रशान्तचित्त पुरुष अत्यन्त दुर्लभ है। असंख्य मुक्तों में इस प्रकार के भाग्यवान कोई एकाध ही मिलते हैं अधिक नहीं मिलते। इसलिये यह स्वरूपानन्द वितरण रूप जो रमण है भगवान का यह ऐसे भक्तों में ही होता है। भगवान में ममता समर्पण करके भगवान को मेरा बना लेना, मेरा अनुभव करना, यह अत्यन्त दुर्लभ है। देहादि में अहम-मम भाव की पीड़ा से जब घबरा जाता है आदमी तब वैराग्य का उदय होता है और तब वह आत्मस्वरूप की उपलब्धि के लिये साधन करता है। विषय-भोग की कामना वह छोड़ देता है क्योंकि उसमें पीड़ा का अनुभव हुआ। इस कामना को ही शास्त्राकार कहते हैं ‘मुक्ति-काम।’ यह समझने का विषय है। मुमुक्षु में क्या होता है? मुमुक्षु बन्धनजनित दुःख का अनुभव करता है। नहीं तो मुक्ति का कोई स्वारस्य नहीं। छुटकारा किसका? जो बँधा हुआ है उसका। बन्धन का जो दुःख है, यही मुक्ति की कामना को उत्पन्न करता है। जब संसार के दुःखों से संतप्त हो जाता है मनुष्य, जब भोगते-भोगते कहीं भी उसको शांति नहीं मिलती; तब एक ऐसा जीवन में क्षण आता है। सबके नहीं आता किसी-किसी के ऐसा सौभाग्य का क्षण आता है जब विषय में विराग की उत्पत्ति होती है। विषय बुरे लगते हैं कि इनमें तो फँसना ही फँसना है, दुःख ही दुःख है। तब उसके मन में उससे छूटने की कामना होती है। इसका नाम ‘मुक्ति-कामना।’ पर जो मुक्तिकामी हैं वे मुक्ति की कामना तो करते हैं पर भगवान में ममता समर्पण करना उनका काम नहीं है। ममता समर्पण वे नहीं कर सकते। वे तो दुःख से निवृत्त होने के लिये, बन्धन से मुक्त होने के लिये मुक्ति की कामना करते हैं और वे आत्म-साक्षात्कार करके मुक्त हो जाते हैं। बड़ी ऊँची स्थिति है। उनके मन में लौकिक भोग-कामना नहीं रहती। उनके मन में लौकिक सिद्धि-कामना नहीं रहती। क्योंकि वह महात्मा लोग लोक-परलोक में दुःख-दैन्यादि का अनुभव कर लेते हैं। इसलिये वे महात्मा मुक्तिलाभ के लिये प्रयत्न करते हैं और मुक्ति प्राप्त करके आत्ममरण करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भाग. 6।14।5
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