रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 83

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन


बहिर्मुख जीव जो हैं वे देह को ‘मैं’ कहकर के रहते हैं। उनकी भ्रांत धारणा कभी मिटती नहीं है। उनके लिये सुखकर क्या है- विषय भोग। मकान, जमीन, व्यापार, स्त्री, पुत्र, मकान, वाहन, कीर्ति, यश, मान, पूजा यह जो है इनमें उनकी मति रहती है। इसी में वे ममता-बुद्धि का पोषण करते हैं। इन्हीं को बटोरते हैं, इन्हीं की रक्षा में रहते हैं। इसके बटोरने में रोना, रक्षा मे रोना और विनाश में रोना; यह उनके हाथ लगता है। जो किसी जन्मान्तरीय सौभाग्य से, पुण्य-बल से, सन्तकृपा से जो ज्ञान योग के मिलन- स्वरूप सारे आत्माओं के आत्मा भगवान को अहम समर्पण करके देह में अहंकार जनित महादुःख से छूट जाते हैं वे वास्तव में भाग्यवान हैं। उनकी इन वस्तुओं में ममता नहीं रहती है और जो भक्ति योग की साधना में निरत होकर स्त्री-पुत्रादि, वित्त आदि में फैली सारी ममता को सब जगह से हटाकर एक मूलस्वरूप भगवान में नियोजित कर देते हैं वे भगवान के प्रेमानन्द सागर में निमग्न हो जाते हैं। परन्तु दुर्भाग्यपूर्ण जीव रति करता है पाप में, मति रखता है पाप में, गौरव बोध करता है पाप में। इसलिये वह मायाहत बुद्धि आसुर-भावापन्न दुष्कृति परायण मूढ़ नराधम भगवान के शरणापन्न होता नहीं। भगवान कहते हैं-

न मां दुष्कृतिनो मूढ़ाः प्रपद्यन्ते नराधमाः।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः।।[1]

यह बहिर्मुख जीव अनादिकाल से जन्म में अभ्यस्त हैं, देह में अहम्बुद्धि में अभ्यस्त हैं, देह के सम्बन्धी पदार्थ में ममता बुद्धि से यह अभ्यस्त हैं इसलिये बेचारे दुःख में ही पड़े रहते हैं। यह अच्छे संग में आ जायें, महासौभाग्य जब इनका जागे। सौभाग्य और दुर्भाग्य का यहाँ पर भेद होता है जो विषयों में, भोगों में, वैभव में, वित्त में, स्त्री-पुत्रादि में, मान-यश में जो सौभाग्य मानता है वह महान दुर्भाग्यपूर्ण है और इन सबमें जिसकी ममता बुद्धि हट जाती है और जो अपनी ममता को भगवत चरण में समर्पण कर सकता है वह महासौभाग्यवान है इसमें कोई संदेह नहीं। सौभाग्य सबको नहीं मिलता; कोई-कोई इस सौभाग्य को प्राप्त होते हैं। बहुत थोड़े जीव ऐसे होते हैं जो भगवान को सर्वस्व मानकर अहं का समर्पण करते हैं। अहं को ब्रह्म में स्थापित कर देने वाले और ब्रह्म को मैं मानने वाले ‘ब्रह्मेवाहम्’ और अहं ब्रह्मस्मि’ इस प्रकार की सत्य अनुभूति करे ब्रह्मानन्द में निमग्न होने वाले बहुत थोड़े जीव होते हैं। यह अत्यन्त दुर्लभ हैं। कोई संन्देह नहीं। यह बहुत ऊँची स्थिति है। परन्तु जो भगवान में ममता समर्पण करके, भगवान को मेरा मानकर, उनको प्रेमदान दे सकते हैं उनकी संख्या तो इनसे भी बहुत अल्प है। आत्माराम-आत्म-साक्षात्कार किये हुए, ब्रह्म को अपना स्वरूप मानने वाले महात्मा बहुत दुर्लभ है। बड़ी ऊँची स्थिति है। बहुत थोड़े होते हैं जो अपनी ममता भगवान के अर्पण कर दे। भगवान को मेरा अनुभव कर सके ऐसे प्रेमी भक्तों की संख्या बहुत कम है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 7।15

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