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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
रासलीला-चिन्तन-2
यह बहिर्मुख जीव अनादिकाल से जन्म में अभ्यस्त हैं, देह में अहम्बुद्धि में अभ्यस्त हैं, देह के सम्बन्धी पदार्थ में ममता बुद्धि से यह अभ्यस्त हैं इसलिये बेचारे दुःख में ही पड़े रहते हैं। यह अच्छे संग में आ जायें, महासौभाग्य जब इनका जागे। सौभाग्य और दुर्भाग्य का यहाँ पर भेद होता है जो विषयों में, भोगों में, वैभव में, वित्त में, स्त्री-पुत्रादि में, मान-यश में जो सौभाग्य मानता है वह महान दुर्भाग्यपूर्ण है और इन सबमें जिसकी ममता बुद्धि हट जाती है और जो अपनी ममता को भगवत चरण में समर्पण कर सकता है वह महासौभाग्यवान है इसमें कोई संदेह नहीं। सौभाग्य सबको नहीं मिलता; कोई-कोई इस सौभाग्य को प्राप्त होते हैं। बहुत थोड़े जीव ऐसे होते हैं जो भगवान को सर्वस्व मानकर अहं का समर्पण करते हैं। अहं को ब्रह्म में स्थापित कर देने वाले और ब्रह्म को मैं मानने वाले ‘ब्रह्मेवाहम्’ और अहं ब्रह्मस्मि’ इस प्रकार की सत्य अनुभूति करे ब्रह्मानन्द में निमग्न होने वाले बहुत थोड़े जीव होते हैं। यह अत्यन्त दुर्लभ हैं। कोई संन्देह नहीं। यह बहुत ऊँची स्थिति है। परन्तु जो भगवान में ममता समर्पण करके, भगवान को मेरा मानकर, उनको प्रेमदान दे सकते हैं उनकी संख्या तो इनसे भी बहुत अल्प है। आत्माराम-आत्म-साक्षात्कार किये हुए, ब्रह्म को अपना स्वरूप मानने वाले महात्मा बहुत दुर्लभ है। बड़ी ऊँची स्थिति है। बहुत थोड़े होते हैं जो अपनी ममता भगवान के अर्पण कर दे। भगवान को मेरा अनुभव कर सके ऐसे प्रेमी भक्तों की संख्या बहुत कम है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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