रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 82

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन


अज्ञानी जीव करता है निरन्तर विषय-चिन्तन। विषय कार्य और विषयों का दासत्त्व यह उसके पल्ले पड़ता है। इससे किसी प्रकार की दुःख-निवृत्ति होती नहीं है यद्यपि उसका हेतु दुःख-निवृत्ति है। विषय सेवन करता है मनुष्य दुःख की निवृत्ति के हेतु ही परन्तु उससे चिन्ता, शोक, भय उसे प्राप्त होते हैं। दुःख-निवृत्ति होती नहीं है। इसलिये जो विज्ञगण हैं, समझदार लोग हैं वे इन सब चीजों से ममता निकाल करके और भगवान में समर्पण करके दुःख मुक्त हो जाते हैं।

न कर्मबन्धनं जन्म वैष्णवानां हि विधियते।
जन्म मृत्यु जरा व्याधि विमुक्तास्ते न संशयः।।
जो भगवत्गण हैं वे कभी कर्माधीन होकर के जन्म ग्रहण नहीं करते। भगवान के भजन के बल से जन्म-मृत्यु, जरा-व्याधि उनके अपने-आप विवर्जित हो जाते हैं। इसलिये जो लोग भगवान को अपना प्रेम समर्पित कर सकते हैं वे ही प्रेम की एकनिष्ठा को प्राप्त होते हैं और वे ही कृतार्थ होते हैं। तो भगवान के प्रति प्रेम-समर्पण के सम्बन्ध में विचार करने पर यह मालूम होता है कि जीवमात्र में ही अहं-मम भाव है। उसमें अहंता और ममता है ही। किन्तु जो बहिर्मुख जीव हैं वे असली ‘मैं’ को ‘मै।’ नहीं कहते। और असली मेरा है उसको मेरा नहीं कहते। वे जड को देखते हैं तो ‘मैं’ इसको कहते हैं और इसके सम्बन्धी जो स्त्री-पुत्रादि पदार्थ हैं उनको कहते हैं मेरा। यह देह में अहं-बुद्धि का नाम अज्ञान है और देह की अनुकूल सुखकर स्त्री-पुत्रादि में ममता बुद्धि का नाम काम है। अज्ञान और काम से अभिभूत जीव को मिलता क्या है? निरन्तर दुःख-दैन्य, व्याधि, भय-विषाद, शोक-पीड़ा, जन्म-मृत्यु यह उनके भाग्य में प्राप्त होते हैं। तो जिससे यह प्राप्त हो उससे प्रेम काहे का है। इस प्रकार पशुवत जीवन को बिताते-बिताते कभी किसी अनिर्वचनीय सौभाग्य से अगर कही असली ‘मैं’ को जान ले, असी ‘मेरे’ को जान ले तो सच्चिदानन्दमय भगवान को वह कहता है मेरा और भगवान का जो अपना है- सेवक उसे कहता है मेरा। तो-
एकेहि भूतात्मा भूते भूतो विवस्थितः।
एकधा बहुधा चैव दृश्यते जल चन्द्रवत्।।

यह भगवान इस प्रकार के हैं। एक ही भगवान। जैसे एक ही चन्द्रमा अनेक जल पात्रों में प्रतिबिम्बित होकर के अनेक दीखते हैं और आकाश की ओर देखने वाले को एक दीखते हैं इसी प्रकार से देह-दृष्टि से मैं की अनन्तता है और जो सर्वगुण सुलभ भगवान को देखते हैं उनमें ‘मैं’ की एकता की उपलब्धि होती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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