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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
रासलीला-चिन्तन-2
यहाँ पर विचार करने पर ऐसा मालूम होता है कि सच्चिदानन्दघन भगवान के अतिरिक्त ऐसी कोई वस्तु नहीं है जिसमें एकमात्र उसी में प्रेम हो सके। ऐसी कोई दूसरी वस्तु जगत में है ही नहीं। एक भगवान ही ऐसे हैं। चाहे कुछ भी नाम हो। क्यों है? इसलिये कि कोई चाहे किसी से प्यार क्यों न करे उसके द्वारा सब प्रकार के आकांक्षाओं की पूर्ति होती नहीं है। जगत में कोई ऐसा प्राणी, पदार्थ, जीव, परिस्थिति है ही नहीं जो सारी आकांक्षाओं को पूर्ण करने में समर्थ हो एक साथ। इसलिये जितने भी प्रेम करते हैं, विषयासक्त जीवों का प्रेम कहीं पर हो, वह प्रेम होता ही नहीं। एक में हो नहीं सकता। एक में प्रेम किसी को अगर करना हो तो केवल भगवान में होता है और कहीं होता नहीं। अनन्य प्रेम भगवान में ही होगा और कहीं होगा ही नहीं। कहते हैं कि अलग-अलग प्रेम करने से अलग-अलग सुख की प्राप्ति होती है। मकान से प्रेम करेंगे तो रहने को मिलेगा, खाने की वस्तु से प्रेम करेंगे तो जीभ की तृप्ति होगी, स्वाद आवेगा, बल आवेगा। स्त्री-पुत्र से प्रेम करेंगे तो वे सेवा लेंगे बदले में प्रेम करेंगे। यह नहीं कि एक में प्रेम करने से सब चीजों की पूर्ति हो जाय। यह तो छः प्रकार के ऐश्वर्य से परिपूर्ण भगवान हैं जिनमें एक जगह सभी चीजें पूरी से भी अधिक अनन्त मिल जाय। किसी को ज्ञान चाहिये तो ज्ञान ले लो, वैराग्य चाहिये तो वैराग्य ले लो, यश चाहिये तो यश ले लो, श्री चाहिये तो श्री ले लो, शौर्य, वीर्य चाहिये तो वह ले लो। इसलिये एक प्रेम भगवान में ही होता है और किसी में होता नहीं। भगवान ने यह आज्ञा की है अर्जुन को कि भाई! तुम हमहीं से प्रेम करो।
भई! तुम प्यारे हो न हमारे इसलिये तुम निरन्तर मेरे में मन लगाओ, मेरी सेवा करो, मेरे भक्त बनो, मुझे नमस्कार करो। तुम मेरे परम प्रिय हो। यह मैं सत्य प्रतिज्ञा करके कहता हूँ कि तुम इस प्रकार करने से मेरे हो जाओगे, मुझको ही पा जाओगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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