रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 73

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

Prev.png
स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन


इसी प्रकार यह भगवान के आनन्द वितरण में पक्षपात न होने पर भी प्रेमी भक्त, अनासक्त जीव और विषयासक्त जीव इनके आनन्दोपभोग में तारतम्य देखने पर वहम हो जाता है लोगों को कि भगवान के आनन्द वितरण में कहीं पक्षपात है। परन्तु भगवान के आनन्द वितरण में पक्षपात नहीं है। जैसे गंगा बह रही है। गंगा का जल सबके लिये समान है कोई चाहे जितना ले ले। परन्तु अपने-अपने पात्र के अनुसार जल आता है। बहते हुए गंगा में जिसका जितना बड़ा पात्र उतना ही जल लेने में समर्थ होता है-छोटे पात्र में थोड़ा और बड़े पात्र में ज्यादा। इसी प्रकार भगवान सर्वत्र सम होेने पर भी और उनके स्वरूपानन्द वितरण की व्यवस्था भी सम होने पर विषयासक्त जीव नाना प्रकार के विषयों का सम्बन्ध रहने के कारण आनन्द का छुद्र कण ही ग्रहण करते हैं। जैसे थोड़ी चीनी है और उसमें नीम-चूर्ण मिला दिया जाय तो चीनी का स्वाद तो आयेगा। जो मिठास है वह चीनी की आयेगी परन्तु नीम के कारण से खारापन रह जायेगा। इसी प्रकार विषय सम्बन्ध अधिक होने के कारण से विषयानन्द वह आनन्द नहीं देगा जो आत्मरामजनों को मिलता है। जो आनन्द सेवा रस में मिलता है प्रेमियों को, वह उनमें नहीं मिलता है।

भगवान का स्वरूप है आनन्द। रमण शब्द का मुख्य अर्थ है आनन्दास्वादन। भगवान जीवों में स्वरूपानन्द का आस्वादन कराते हैं। भगवान ही अपने स्वरूपानन्द का वितरण करते हैं। इसलिये आनन्दास्वादन एक होने पर भी जीव का दूसरा और आत्मारामों का दूसरा तथा भगवान का दूसरा। अनासक्त जीव जो है वे विषय-सम्बन्ध मात्र को दुःख हेतु मानकर और सब प्रकार के विषयों का सम्बन्ध परित्याग करके आनन्दस्वरूप ब्रह्म के अनुसंधान में रत रहते हैं; और ब्रह्मानन्द का अनुसंधान पाकर उसमें विलीन हो जाते हैं। यह उनका आत्मरमण है। यह आनन्दास्वादन है। विषयी लोग जो हैं वे विषयों में आनन्द की उपलब्धि करते हैं, उनका आनन्द क्षणिक होता है। तत्काल आनन्द बदला और दुःख में परिणित हो गया। कहते हैं कि ब्रह्मानन्द की प्राप्ति जो है इसमें और भगवान के स्वरूपानन्द में थोड़ा अन्तर है। वह अन्तर क्या है कि भगवान का जो स्वरूपानन्द वितरण है वह प्रेमीगण में सुख का वितरण करके, स्वरूपानन्द का वितरण करके उसका रस भगवान लेते हैं। यह भगवान का स्वरूपानन्द वितरण प्रेमियों का सुख देने में निमित्त बनकर सुख का आस्वादन कराता है। ऐसा क्यों होता है? प्रेमी भक्त ही अपने प्रेमानुरूप सम्बन्ध से भगवान को अपना मानते हैं। भगवान मेरे और अपने-अपने प्रेमानुभवरूप से भगवान के स्वरूपानन्द का आस्वादन करते हैं। वात्सल्य वाले वात्सल्य का, सख्य वाले सख्य का, मधुर वाले इस प्रकार से उनको आनन्द की प्राप्ति होती है। इसमें और भेद नहीं है कोई कैसा भी हो।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
क्रमांक पाठ का नाम पृष्ठ संख्या

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः