रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 74

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन


भक्त्याहमेकया ग्राह्यः श्रद्धयाऽऽत्मा प्रियः सताम्।
भक्तिः पुनाति मन्निष्ठा श्वपाकानपि सम्भवात्।।[1]

श्रीमद्भागवत के इस वचन से यह सिद्ध होता है-भगवान ने उद्धव से कहा है कि सारे जीवों में आत्मस्वरूप होते हुए भी भक्त मेरे परम प्रिय हैं। उनकी भक्ति से, उनके प्रेम से मैं निरन्तर उनके वश में रहता हूँ। भक्ति का माहात्म्य यहाँ तक कि भगवान की भक्ति करने से श्वपाक-कुत्ते का मांस खाने वाला चाण्डाल जाति का भी सारे पापों से मुक्त हो जाता है। गीता में भी भगवान के ऐसे बहुत से वचन आते हैं। ‘भक्त्या त्वनन्यया शक्यः’[2] इत्यादि। गीता में भक्तों के लिये खास बात कही है कि-

समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्।।[3]
इसका अर्थ यह नहीं है कि दूसरे भूतों में, दूसरे प्राणियों में स्वरूप-वितरण में भेद है। भक्त का जो प्रेम है उनकी जो भक्ति है वह भगवान के स्वरूपानन्द को जितना ग्रहण करती है, उतना ग्रहण और लोग नहीं कर सकते- इसीलिये भक्त उनके और वे भगवान के। इसका अर्थ यह नहीं कि उनके स्वरूप में कोई भेद है या वितरण में कोई पक्षपात है। यह चीज नहीं है। यहाँ तक कह दिया श्रीमद्भागवत में-
साधवो हृदयं मह्यं साधूनां हृदयं त्वहम्।
मद्न्य् ते न जानन्ति नाहं तेभ्यो मनागपि।।[4]

वह मेरा हृदय और मैं उनका हृदय। हृदय की अदला-बदली हो गयी। साधु मेरा हृदय और मैं उनका हृदय हूँ। उनको छोड़कर मैं किसी को नहीं जानता और मुझको छोड़कर वे किसी को नहीं जानते। दो नहीं रह गए।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद्भा. 11।14।21
  2. 11।54
  3. 9।29
  4. 9।4।68

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