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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
रासलीला-चिन्तन-2
श्रीमद्भागवत के इस वचन से यह सिद्ध होता है-भगवान ने उद्धव से कहा है कि सारे जीवों में आत्मस्वरूप होते हुए भी भक्त मेरे परम प्रिय हैं। उनकी भक्ति से, उनके प्रेम से मैं निरन्तर उनके वश में रहता हूँ। भक्ति का माहात्म्य यहाँ तक कि भगवान की भक्ति करने से श्वपाक-कुत्ते का मांस खाने वाला चाण्डाल जाति का भी सारे पापों से मुक्त हो जाता है। गीता में भी भगवान के ऐसे बहुत से वचन आते हैं। ‘भक्त्या त्वनन्यया शक्यः’[2] इत्यादि। गीता में भक्तों के लिये खास बात कही है कि-
वह मेरा हृदय और मैं उनका हृदय। हृदय की अदला-बदली हो गयी। साधु मेरा हृदय और मैं उनका हृदय हूँ। उनको छोड़कर मैं किसी को नहीं जानता और मुझको छोड़कर वे किसी को नहीं जानते। दो नहीं रह गए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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