रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 72

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन


‘लोकवत्तु लीलाकैवल्यम्’[1]

श्रीभगवान के स्वरूपानन्द वितरण के समय पर विचार करने से यह मालूम होता है कि भगवान स्वरूपानन्द का वितरण कहाँ करते हैं? कहीं करते हैं, कहीं नहीं करते। जो आनन्द है किसी विषय में कहीं भी-वह आनन्द भगवान के आनन्द स्वरूप के अतिरिक्त कहीं और से आता है? विषय-भोग में भी जो आनन्द की अनुभूति है-वह आनन्द का श्रोत, आनन्द का मूल, आनन्द का भण्डार तो भगवान का स्वरूप ही है। इसलिये इस पर विचार करते हुए कहते हैं कि जैसे सूर्य सर्वत्र अपनी किरणों का वितरण करता है। इसी प्रकार आनन्दमय भगवान भी सर्वत्र स्वरूपानन्द का वितरण किया करते हैं। यह भगवान का स्वभाव है।

‘ऐते सेवा निन्दस्यामि यामि भूतानि मात्रापजीवन्ति’

यह वृहदारण्यक उपनिषद् वचन है कि आनन्दमय भगवान के स्वरूपानन्दकण का ही सारे जीव उपभोग करते हैं। और कहीं है ही नहीं आनन्द। सूर्य के सर्वत्र समभाव से किरणों का वितरण करने पर भी जैसे सर्वथा समानभाव से प्रकाश नहीं होता है। यद्यपि सूर्य के वितरण में कमी नहीं है परन्तु समान भाव से प्रकाश नहीं होता है। सूर्य किरणें जब सूर्यकान्त मणि पर पड़ती हैं तब उसका विशेष प्रकाश होता है। सूर्य की किरणें जब किसी तेजस पदार्थ पर किसी चमकती हुई चीज पर पड़ती है तो विशेष चमक होती है। सफेद चीज पर पड़ती है तो चमक तो नहीं होती परन्तु उज्ज्वल प्रकाश होता है और अगर मिट्टी के घड़े या काली चीज पर पड़ती है तो मिट्टी के घड़े पर केवल उत्ताप दीखता है और काली जगह पर उत्ताप का भी अनुभव हाथ लगाने पर होता है। सूर्य की किरणों में तो भेद है नहीं। यह भेद है इसलिये कि उसके जो ग्रहण करने के पात्र है उनमें अन्तर है। भगवान के स्वरूपानन्द का जो वितरण है, वह प्रेमी भक्तों में तो पैदा करता है प्रेम-विकार। ‘विकार’ शब्द रस शास्त्र में आता है पर यह लौकिक विकार वाला विकार नहीं है। प्रेम की जो दशाएँ हैं- प्रेम के प्रादुर्भूत होने पर जिस प्रकार की स्थितियाँ होती हैं उन स्थितियों का नाम विकार है। इसको सात्त्विक भाव का फल कहा है। इन भक्तों में तो दो विकार होते हैं-प्रेम विकार और सेवा रसास्वादनादि विकार-वह भगवान की सेवा के रस का आस्वादन करते हैं और उनमें प्रेम की विचित्र अवस्थायें प्रादुर्भूत होती हैं। जो अनासक्त जीव हैं उनको दुःख निवृत्ति और आत्मारामलाभता प्राप्त होती है और विषयासक्त जीव हैं उनको किंचित विषयों में आनन्द की उपलब्धि होती है। इसलिये जैसे सूर्य की किरणों में सूर्य का पक्षपात न होने पर भी सूर्यकान्त मणि देखने पर मालूम पड़ता है कि सूर्य ने पक्षपात किया, यहाँ देखो, ज्यादा प्रकाश हो गया, और पास रहने वाली चीज जल भी गयी और बेचारे मिट्टी के पात्र को यूँ ही रहने दिया। इससे लोगों को दीखता है कि यह पक्षपात है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वेदान्त दर्शन 2।1।33

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