रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 64

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन


मथुरा में एक लवणासुर राक्षस था जो बड़ा उत्पाती था। राम के दरबार में शिकायत आयी, बात हुई। यह तय हुआ कि लवणासुर का दमन करना है। उस दिन शत्रुघ्न के मन में आ गयी कि सेवा सबको मिलती है जरा हमको भी कुछ मिल जाय। सोचे जरा कह दें तो बोले-सरकार! दया हो आपकी तो यह लवणासुर वाला काम दास कर दे। राम जी बोले हाँ! हाँ। अवश्य करो। लवणासुर का दमन करो और वहीं पर राज्य करो। अब तो शत्रुघ्न पर वज्रपात हो गया। इसलिये कि आज ही बोले और बोलते ही काम बिगड़ गया। राम से अलग होने का आदेश मिल गया। अब बोल नहीं सकते। बड़ा पश्चात्ताप मन में किया कि जीवनभर कभी बोले नहीं और आज बोले तो फल मिल गया बोलते ही।

दास भक्त जो होता है वह मालिक के सामने बकवाद तो करता ही नहीं, मालिक को सलाह भी देनी होती है तो दूसरे के द्वारा दिलवाना चाहता है स्वयं नहीं बोलना चाहता। इसलिये जब लंका में विभीषण शरणागत होने आया तो भगवान ने सबकी सम्मति ली और सबने बड़ी सम्मति दी। हनुमान जी बोले नहीं और राम का निर्णय सुनकर प्रसन्न हो गये। ठीक निर्णय है - यह तो कह दिया पर अपनी सम्मति पहले नहीं की क्योंकि दास भक्त है। दास भक्त जो है वह परिचर्या, आज्ञापालन करता है। निरन्तर वह आज्ञापालनरूपी सेवा समुद्र में निमग्न रहता है। दूसरा कोई उसका हेतु नहीं है। सलाह देना भी सेवा है। आज्ञा देना भी सेवा है पर सब प्रकार की सेवाधिकार नहीं। परिचर्या कार्य है।

फिर जब कुछ भाव आगे बढ़े तो सख्यता पैदा होगी। सख्यता हुई तो समता आ गई। समता में सलाह भी देता है। अब सुग्रीव जी और हनुमान में क्या भेद? पर सुग्रीव को सखा कहते हैं भगवान। हनुमान को कभी सखा नहीं कहा, तात कहा, सुत कहा पर सखा नहीं कहा और हनुमान के गलें में कभी बाँह डालकर नहीं बैठे और कान के पास मुँह न लगाने दिया, न खुद लगाया। पर विभीषण और सुग्रीव इन दोनों के तो कान के पास मुँह करके बात करते। उनके कान के पास मुँह लगाकर बात सुनते। सुग्रीव के पास की झाँकी है बड़ी सुन्दर। वहाँ विभीषण के कान में मुँह लगाये कह रहे हैं और सुग्रीव से राय पूछते हैं, कहो कया करे? सखा! बोलो, तुम्हारी क्या राय है? सखा राय भी देते हैं। सम्मति भी देते हैं। बिना पूछे देते हैं और कभी रास्ता ठीक न हो तो हाथ पकड़कर हटा देते हैं कि इधर मत जाओ-

‘कुपथ निवारि सुपंथ चलावा’[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मानस/किष्कि./6/4

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