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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
रासलीला-चिन्तन-2
इसी प्रकार सच्चिदानन्दघन विग्रह श्रीभगवान के भोग; हैं तो सब सेवा में ही पर सेवा कोई दास्य रति की, कोई सख्य की, कोई वात्सल्य की, कोई मुधर की होती है। इस प्रकार के उसके भेद होते हैं। सेवा के तारतम्य से भोग में भी तारतम्य आ जाता है। जो भगवान को बड़ा अपने को तुच्छ, भगवान को स्वामी अपने को सेवक, भगवान को आज्ञा देने वाला अपने को आज्ञा पालन करने वाला, भगवान की सेवा से ही अपने जीवन की सफलता मानने वाला, साधक है वह दास्य रति का भक्त है। उसे सेवा अधिकार तो प्राप्त हो गया इसलिये शान्त भक्त की अपेक्षा तो और आगे बढ़ गया, नजदीक आ गया। लेकिन वह आज्ञापालन परिचर्यादि के द्वारा भगवान की प्रीत-साधन करने के अतिरिक्त भगवान को कोई आज्ञा नहीं देता है कि आप यह काम यूँ करो। यह तो कहता ही नहीं और सलाह देने में हिचकता है कि मालिक को सलाह कैसे दें। अपनी बात को दूसरे के द्वारा कोई बहुत नजदीक का सेवक होता है तो उससे कहते हैं। रामचरितमानस में आता है कि - भरत जी को कोई बात कहनी होती तो हनुमान से कहते कि तुम जरा सरकार से कह देना हमारी बात क्योंकि मालिक के सामने बोलने में भी संकोच होता है। वाल्मीकि रामायण में आया कि शत्रुघ्न महाराज राम के सामने बोलना तो अलग रहा, राम से कुछ कह भी नहीं पाते और संकोच से अलग रहते। लक्ष्मण से भी नहीं बोलते। लक्ष्मण जी राम जी के साथ रहे थे और ये भरत जी की सेवा में रहे। भरत जी सगे भाई तो नहीं, पर भरत जी की सेवा में रहे तो कुछ कहना हो तो भरत जी से कह देते और यह मानते कि राम जी की सेवा का अधिकार तो अपने को है नहीं। भरत राम के प्रेमी और भरत की सेवा अगर मिलती रहे तो अपने निहाल हो जायं, इसी में रहे। जीवन भर कभी ये राम के सामने बोले नहीं और न तो माँग की, न तो आलोचना की, न राय ली और न राम ने पूछा ही। जरूरत क्या है पूछने की? भरत का सेवक है - हमारे सेवक का सेवक। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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