रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 65

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन


यह सखा का धर्म है। यद्यपि सखा जीता है सखा के सुख-सम्पादन में। वहाँ भी अपना सुख नहीं है। जैसे दास का काम केवल मालिक की सेवा है। यही उसका जीवन है। इसी प्रकार सखा का मित्र का काम केवल सखा का ही सुख है। जो व्रज सखा हैं वह तो कुछ अजब हैं। व्रज सखा और व्रज के भगवान यह जो हैं यह खिलाड़ी हैं। तो कभी व्रज के सखा जब इनको गाली-वाली दें तब उनको आनन्द आता है। जब मान के रस में आनन्द न आवे, तो जरा दो-चार गाली सुन ले। कोई संकोच नहीं गाली-वाली देने में। हनुमान जी महाराज के कंधो पर राम-लक्ष्मण को बैठाकर के युद्ध किया, सब किया; पर भगवान के कन्धे पर हनुमान जी बैठे हों तो बताइये। और श्रीदाम भगवान श्यामसुन्दर को घोड़ा बनाकर चढ़ गया। भागवत की कथा है।

‘त्वाच भगवान श्रीकृष्णः श्रीदामानाम पराधीनः’

हार गये भगवान। होड़ हुई थी कि जो हारे सो घोड़ा बने। अब अगर भगवान भगवान बन जाये तो उनको हरावे कौन? भगवान भगवान बने रहें, अपनी भगवत्ता को लिये बैठे रहें। वैसे तो वैकुण्ठ में रहें फिर व्रज में आकर सखाओं के बीच में क्यों अवतीर्ण हुए? अपनी स्वयं सीमा में रहो वहाँ पर रात-दिन सुनते रहो।

व्रज में आये हैं तो व्रज में माँ-बाप भी हैं, सखा भी हैं। होड़ लगी कि जो हारे सो घोड़ा बने। श्यामसुन्दर हार गये। श्रीदाम ने कहा कि बनो घोड़ा। श्यामसुन्दर को घोड़ा बनाया और श्रीदाम चढ़कर सवार हो गये पीठ पर बोले-चल यहाँ से। ले गये उनको वंशीवटतक। श्रीदामा ने गये। यह अधिकार हनुमान को कहाँ है? सख्यता में जो समता है यह समता दास्य रति में नहीं है।

भगवान श्यामसुन्दर की गोष्ठलीला बड़ी मधुर लीला है। यहाँ भगवान बहुत फटकार सुनते सखाओं से। जैसे सुबल बोले-लाला! सो जा बहुत देर हो गयी, थक गये होगे और गोद में सुला लेता। सुबल ने कहा गोद में सो जा तो सिर रखकर सो गये। दूसरा आकर पेड़ का पत्ता लेकर हवा करने लगा। वहाँ कौन-सा बिजली का पंखा था। तीसरा पग दबाने लगा, सारे काम करें पर कहीं कृष्ण मालिकी लगाने लगे तो कान पकड़कर बाहर निकाल दें कि यह मालिक बनने आया है। सखा हो तो हम तुम्हारी सेवा भी करेंगे, खिलायेंगे भी, सब करेंगे, पंखा भी झल देंगे, मिट्टी भी झार देंगे पर कभी काम पड़े तो हमारी भी करनी पड़ेगी। सरल सखा हैं न! थक जाते हैं। तकलीफ में नहीं रहने देते लेकिन बराबरी का काम। यह सख्य रस में समता रहती है। सख्य रसमय जो भक्त हैं वे सख्य रसानुप्राणित चित्त से भगवान के प्रभुत्व को नहीं मानते। वहाँ तो बराबरी को मानते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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