राधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ पृ. 99

श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ

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श्रीरास-लीला

(श्लोक)

न पारयेऽहं निरवद्यसंयुजा स्वसाधुकृत् विबुधायुषापि वः ।
या माभजन् दुर्जरगेहश्रृंखलाः संवृश्च्य तद् वः प्रतियातु साधुना ।।

हे पुत्र, “एकं तेजो भवेद् द्वेधा, राधामाधवरूपकम्” एक ही सच्चिदानंद श्रीस्यामसुंदर ‘श्रीराधा’ नामक अपने ही रूप सौं बिराजै हैं और सखी तौ श्रीराधारानी की बहु मूर्ति मात्र हैं। “गोप्यस्तु श्रुतयो ज्ञेया ऋषिजा देवकन्यकाः।” इनमें हू कोई श्रुतिरूपा हैं, कोई ऋषिरूपा हैं। अर्थात् श्रुतिन ने और ऋषिन ने बहुत काल ताईं तप करिकैं बैकुंठ में भगवान् सौं यही वर माँग्यौ कि-

यथा स्वल्लोकवासिन्यः कामतत्त्वेन गोपिकाः।
भजन्ति रमणं मत्वा चिकीर्षामो वयं तथा ।।

‘हे प्रभो! हम गोपीन की नाईं आप कूँ अपनो रमण मानि कैं सेवै।’ तब भगवान् ने यह वर दियौ-

कल्पं सारस्वतं प्राप्त व्रजे गोप्यो भविष्यथ ।
पृथिव्यां भारते क्षेत्रे माथुरे मम मण्डले ।
वृन्दावने भविष्यामि प्रेयान् वो रासमण्डले ।।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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क्रमांक विषय का नाम पृष्ठ संख्या
1. श्रीप्रेम-प्रकाश-लीला 1
2. श्रीसाँझी-लीला 27
3. श्रीकृष्ण-प्रवचन-गोपी-प्रेम 48
4. श्रीगोपदेवी-लीला 51
5. श्रीरास-लीला 90
6. श्रीठाकुरजी की शयन झाँकी 103
7. श्रीरासपञ्चाध्यायी-लीला 114
8. श्रीप्रेम-सम्पुट-लीला 222
9. श्रीव्रज-प्रेम-प्रशंसा-लीला 254
10. श्रीसिद्धेश्वरी-लीला 259
11. श्रीप्रेम-परीक्षा-लीला 277
12. श्रीप्रेमाश्रु-प्रशंसा-लीला 284
13. श्रीचंद्रावली-लीला 289
14. श्रीरज-रसाल-लीला 304
15. प्रेमाधीनता-रहस्य (श्रीकृष्ण प्रवचन) 318
16. श्रीकेवट लीला (नौका-विहार) 323
17. श्रीपावस-विहार-लीला 346
18. अंतिम पृष्ठ 369

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