राधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ पृ. 98

श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ

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श्रीरास-लीला

शंकरजी- हाँ, पुत्र! निश्चै रासक्रीड़ा करैं हैं।

आसुरीजी- तौ स्वामिन्! श्रीस्यामसुंदर की प्रीति जो ब्रजगोपीन में है और ब्रजगोपीन की प्रीति स्यामसुंदर में है सो प्राकृत स्त्री पुरुषन की भाँति है कि कछु विलक्षण है?

शंकरजी- हे पुत्र, यह विषय बहुत गंभीर है। तुमने अति गूढ़ प्रश्न कियौ है, कारण कि श्रीब्रजगोपीन के प्रेम की महिमा वर्णन करिवे की सामर्थ्य तौ श्रीस्यामसुंदर में हूँ नाँय है। क्योंकि इनकै प्रेमकौ स्वरूप ही अपार है। अर्थात् मन-बुद्धि ते अगोचर है। उद्धवादिक महाभागवत हू वा प्रेम की प्रशंसा करैं हैं। उद्धवजी नै तो यहाँ ताईं कही है-

आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्यां वृन्दावने किमपि गुल्मलतौषधीनाम्।
या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथं च हित्वा भेजुर्मुकुन्दपदवीं श्रुतिभिर्विमृग्याम् ।।

अर्थात् अहो, मैं, जिन गुल्म-लतादिकन कूँ श्रीब्रजदेवीन की चरणरज प्राप्त होय है, विनमें ते कोऊ लता-गुल्मादिकन को जन्म प्राप्त करनौ चाहूँ हूँ। कारण जब श्रीस्यामसुंदर की वंशीधुनतें मोहित है कैं ये ब्रजगोपी उनके दरसन करिवे चलैंगी तौ वा समय बृंदाबन में यदि मैं कोउ लता होऊँगो तौ श्रीब्रजदेवीन की चरण-रज मेरै ऊपर परिवे सों मैं कृतार्थ है जाऊँगो। ब्रजगोपीन कौ सौ प्रेम तौ मैंने श्रीस्यामसुंदर में हू न देख्यौ है न सुन्यौ है और या प्रेम की प्रसंसा तौ स्यामसुंदर हू करैं हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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क्रमांक विषय का नाम पृष्ठ संख्या
1. श्रीप्रेम-प्रकाश-लीला 1
2. श्रीसाँझी-लीला 27
3. श्रीकृष्ण-प्रवचन-गोपी-प्रेम 48
4. श्रीगोपदेवी-लीला 51
5. श्रीरास-लीला 90
6. श्रीठाकुरजी की शयन झाँकी 103
7. श्रीरासपञ्चाध्यायी-लीला 114
8. श्रीप्रेम-सम्पुट-लीला 222
9. श्रीव्रज-प्रेम-प्रशंसा-लीला 254
10. श्रीसिद्धेश्वरी-लीला 259
11. श्रीप्रेम-परीक्षा-लीला 277
12. श्रीप्रेमाश्रु-प्रशंसा-लीला 284
13. श्रीचंद्रावली-लीला 289
14. श्रीरज-रसाल-लीला 304
15. प्रेमाधीनता-रहस्य (श्रीकृष्ण प्रवचन) 318
16. श्रीकेवट लीला (नौका-विहार) 323
17. श्रीपावस-विहार-लीला 346
18. अंतिम पृष्ठ 369

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