यासौं हे पुत्र! गोपीन के प्रेम में लौकिक प्रेम की तौ गंध हूँ नायँ है।
आसुरिजी- हे स्वामिन्! आपनै तौ बड़ौ सुंदर आख्यान सुनायौ, अब रास कौ समय है गयो है। ये आनंद अवस्य अनुभव करिबे जोग्य है, सो कहूँ एकान्त स्थान में ठाड़े है कैं या रास कौ निर्बिघ्न आनंद प्राप्त करैं।
शंकरजी- हे पुत्र, रास देखिबै कौ सब कूँ अधिकार नायँ है- तू अपनै कू बड़ो अधिकारी मानिबे की भूल मत करै।
आसुरिजी- तौ हे प्रभो! रास के अधिकारी कौन हैं? और मैं कैसे बनि सकूँ हूँ?
शंकरजी- हे पुत्र, सावधान है कैं सुन।
(पद)
- प्रथम सुनैं (श्री) भागवत भक्तमुख भगवद्बानी ।
- दितिय अराधै भक्ति ब्यास नव भाँति बखानी।।
- तृतिय करै गुरु समुझि दच्छ सर्बग्य रसीलौ।
- चौथें होय बिरक्त बसै बन राज जसीलौ।।
- पाँचें भूले देह-सुधि, छठें भावना रास की।
- सातें पावै रीति-रस श्री स्वामी हरिदास की।।