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श्रीसाँझी-लीला
- बिना कहें मेरौ पट सुरझायौ, इकटक मो तन रह्यौ निहारि ।।
- पट सरुझाकर मन अरुझायौ, कहा कहूँ लज्जा की बात ।
- हौं गुरुजन डर दबी जात री, इत वे सैननि हा-हा खात ।।
- नाम न जानौं वाकौ, स्याम बरन हुतौ, पीत बरन बर हुतौ री दुकूल ।
- वाहि बन लै चलि नागरिया फिरि बीनन साँझी के फूल ।।
सखी! मैं फूल बीनत-बीनत जमुना तट पै जाय पौहौंची। तहाँ अरनी की डार में मेरौ अंचल उरझि गयौ ।
सखी- तौ हम कौं क्यौं न बुलाय लीनी?
श्रीजी- अरी, मैंनें तुम सबन के नाम लै लै-कैं हेला दिए, परंतु काऊ नें नायँ सुनी।
सखी- तौ कौन नें सुरझायो?
श्रीजी- सखी! तब वा मालती कुंज में सौं लता हटामतौं भयौ मेरी ही दाईं एक बड़ोई सुकुमार निकसि कैंनें आयौ। वा बिना हीं कहें मेरौ अंचल सुरझाय दियौ और इकटक मेरी ओर देखिबे लग्यौ। वानें मेरौ वस्त्र तौ सुरझाय दियौ, परंतु मेरौ मन उरझाय लियौ। और तोसौं का कहूँ, कहिबे में लाज लगै है- सखी! मैं तो सकुच के मारैं दबी जाय रही और उतकूँ वह नैनन में हीं मेरी हाहा खाय रह्यौ।
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