[दोनों श्रीचंद्रावलीजी के दर्शन करि कैं पधारैं]
सखी- कहौ प्रिय चंद्रावली! आज कैसैं उदास हौ, कहा सोच है?
चंद्रावली- मोकूँ कछु सोच नहीं है।
सखी- बलिहारी! तुमहीं सब चतुराई पढ़ी हौ, हम तौ मूर्ख हैं।
चंद्रावली- यदि कछु सोच होतौ मैं तोसौं थोरें ही छिपावती।
सखी- बस, इतनी ही तौ कसर है, यदि तू मोहि अपनी प्यारी सखी समझती तौ-
चंद्रावली- [हाथ सौं सखी कौ मुख बंद करि कैं-] बस चुप्प रह, तोतें अधिक और कौन प्यारी है।
सुखी- मैं हूँ याही ब्रज में रहूँ हूँ और सब रंग ढंगन कूँ देखूँ हूँ तेरौ। मुख ही कहि रह्यौ है कि तोकूँ सोच है, और फिर, सोच है।
चंद्रावली- सो मेरौ मुख कहा कहि रह्यौ है?
सखी- तू काहू की प्रीत में फँसी है।
चंद्रावली- बलिहारी! बलिहारी!
सखी- बलिहारी सौं काम नहीं चलैगौ, अंत में मैं ही काम आऊँगी, तेरो रोग की औषधि मो वैद्य के पास ही मिलैगी।
चंद्रावली- औषधि तौ तू जब देयगी न कि मेरे कछु रोग होय।
सखी- फिर वो ही बात? भगवान् ने दो आँखि मोहू कूँ दई हैं। मैं कछू ईंट-पत्थर की नहीं हूँ।
चंद्रावली- यह कौन कहै कि तू ईंट-पत्थर की है?
सखी- तौ सुनि। या ब्रज में वासौं वही बची होयगी, जो ईंट-पत्थर की होयगी।