नारद- वहाँ श्रीब्रज बल्लवीन के दर्शन कर अपने कूँ पवित्र कियौ, और उनकी बिरहावस्था कूँ देखि बहुत दिन ताईं वहाँ भूल्यौ-भटक्यौ-सौ फिरतौ रह्यौ।
शुकदेव- तौ श्रीस्यामसुंदर में कौन सी गोपी कौ अधिक प्रेम है?
नारद- प्रभो! मैं कौन कूँ कम बताऊँ? वहाँ एक सौं एक बढ़िकैं हैं। हाँ, परंतु या समैं श्रीचंद्रावलीजी के प्रेम की प्रशंसा ब्रज की गली-गली में है रही है।
शुकदेव- चंद्रावलीजी कौ भाव तौ परकीया है।
नारद- किंतु वह स्वकीया सौं श्रेष्ठ है। लौकिक कान्ता भाव में परकीया भाव त्याज्य है, क्योंकि वामें अंग-संग की काम वासना-रहै है। और प्रेमास्पद जार पुरुष होय है। किंतु यही प्रेम स्यामसुंदर सौं कियौ जाय तौ वह स्वकीया सौं श्रेष्ठ है। याही सौं चंद्रावलीजी कौ प्रेम श्रेष्ठ है।
शुकदेव- तौ चलौ, हम हूँ श्रीचंद्रावलीजी के दर्शन कर नेत्र सुफल करें।
नारद- हाँ, अवश्य पधारौ।
शु. ना. –
पद (राग मालकोश, ताल-त्रिताल)
- ब्रज की लता-पता मोहि कीजै।
- गोपी पद-पंकज की पावन रज जामें सिर भीजै।।
- आवत जात कुंज की गलियन रूप-सुधा नित पीजै।
- श्री राधे-राधे मुख यह बर हरीचंद कौं दीजै।।