राधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ पृ. 299

श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ

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श्रीचंद्रावली-लीला

नारद- वहाँ श्रीब्रज बल्लवीन के दर्शन कर अपने कूँ पवित्र कियौ, और उनकी बिरहावस्था कूँ देखि बहुत दिन ताईं वहाँ भूल्यौ-भटक्यौ-सौ फिरतौ रह्यौ।
शुकदेव- तौ श्रीस्यामसुंदर में कौन सी गोपी कौ अधिक प्रेम है?
नारद- प्रभो! मैं कौन कूँ कम बताऊँ? वहाँ एक सौं एक बढ़िकैं हैं। हाँ, परंतु या समैं श्रीचंद्रावलीजी के प्रेम की प्रशंसा ब्रज की गली-गली में है रही है।
शुकदेव- चंद्रावलीजी कौ भाव तौ परकीया है।
नारद- किंतु वह स्वकीया सौं श्रेष्ठ है। लौकिक कान्ता भाव में परकीया भाव त्याज्य है, क्योंकि वामें अंग-संग की काम वासना-रहै है। और प्रेमास्पद जार पुरुष होय है। किंतु यही प्रेम स्यामसुंदर सौं कियौ जाय तौ वह स्वकीया सौं श्रेष्ठ है। याही सौं चंद्रावलीजी कौ प्रेम श्रेष्ठ है।
शुकदेव- तौ चलौ, हम हूँ श्रीचंद्रावलीजी के दर्शन कर नेत्र सुफल करें।
नारद- हाँ, अवश्य पधारौ।
शु. ना. –
पद (राग मालकोश, ताल-त्रिताल)

ब्रज की लता-पता मोहि कीजै।
गोपी पद-पंकज की पावन रज जामें सिर भीजै।।
आवत जात कुंज की गलियन रूप-सुधा नित पीजै।
श्री राधे-राधे मुख यह बर हरीचंद कौं दीजै।।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

क्रमांक विषय का नाम पृष्ठ संख्या
1. श्रीप्रेम-प्रकाश-लीला 1
2. श्रीसाँझी-लीला 27
3. श्रीकृष्ण-प्रवचन-गोपी-प्रेम 48
4. श्रीगोपदेवी-लीला 51
5. श्रीरास-लीला 90
6. श्रीठाकुरजी की शयन झाँकी 103
7. श्रीरासपञ्चाध्यायी-लीला 114
8. श्रीप्रेम-सम्पुट-लीला 222
9. श्रीव्रज-प्रेम-प्रशंसा-लीला 254
10. श्रीसिद्धेश्वरी-लीला 259
11. श्रीप्रेम-परीक्षा-लीला 277
12. श्रीप्रेमाश्रु-प्रशंसा-लीला 284
13. श्रीचंद्रावली-लीला 289
14. श्रीरज-रसाल-लीला 304
15. प्रेमाधीनता-रहस्य (श्रीकृष्ण प्रवचन) 318
16. श्रीकेवट लीला (नौका-विहार) 323
17. श्रीपावस-विहार-लीला 346
18. अंतिम पृष्ठ 369

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