(सखी हाथ छुड़ाय कैं भाग जाय)
- चंद्रावली-
(पद)
- प्रभुजी कहाँ गये नेहरा लगाय।
- छोड़ि गयौ अब मोहि बिसासी प्रेम कौ दीप जलाय।।
- बिरह समुद्र में छोड़ि गयौ पिय! नेहरा की नाव चलाय।
- मीरा के प्रभु कब ली मिलौगे तुम बिन रह्यौ न जाय।।
(पटापेक्ष)
शुकदेव- या संसार के जीवन की कैसी विलक्षण गति है! कोई नेम-धर्म में चूर, कोई ज्ञान-ध्यान में मस्त, कोई मत-मतान्तर के झगरे में मतवारे हैं, कोई स्त्री-पुत्र के मोह में डूबे भये हैं। परंतु वह जो परम प्रेममयी अमृत भक्ति है, वाकूँ तौ कोई जानै नहीं है। जानै कैसैं, सब वाके अधिकारी नहीं है। वो रस तौ शंकरजी नें ही पान कियौ है- अहा धन्य, धन्य!
[[[नारद]] आवें, दोनों आपस में प्रणाम करैं]
शुकदेव- कहौ, देवर्षि! या समैं कौन से देस कूँ पवित्र करते पधार रहे हौ।
नारद- प्रभो, या समय में श्री बृंदाबन सौ आय रह्यौ हूँ और वहाँ एक विलक्षण बात देखी।