श्रीजी- तौ आपके चित्त कौ हठ जैसें दूर होय मैं वही करूँ।
देवी- बहिन, आप तौ यहाँ हौ और आपके प्यारे नंदग्राम में कहूँ गऊँ चराय रहे होयँ, आप अब यहीं ते उन्हें स्मरन करौ। वे सीघ्र यहाँ चले आवैं, तब मैं आपकूँ और आपके प्यारे कूँ एक प्रान, द्वै देह समझूँगी।
श्रीजी- हे सखी! आप क्यों हमारी हाँसी करौ हौ।
देवी- हे राधे, मैं हाँसी नायँ करूँ। यह तौ आपकूँ करनौ ही होयगौ।
श्रीजी- अच्छौ, बहिन, मैं ऐसे ही करूँगी, नहीं तौ मेरौ प्रेम लज्जित होयगौ।
(श्रीजी नेत्र बंद करि पद्मासन सौं बिराजि ध्यान करैं।)
‘हे देवाराध्य! हे भास्कर! हे सर्वकामद! जो मैं और स्यामसुंदर एक ही आत्मा होयँ और यह मेरी कही सब लीला सत्य होय तो प्रियतम सीघ्र मेरे नयनगोचर होंय।’
(ठाकुरजी छद्म बेस त्यागि कैं पधारते भये)
ठाकुरजी- हे प्यारी! यह आप कहा करि रही हौ?
सखी- हे प्रियतम, आप यहाँ अलक्षित हैकैं कैसैं चले आये? बड़ौ आस्चर्य है, यह अंतःपुर तो कुलबधून कू हूँ अगम्य है। ऐसे दुष्प्रेबेस अन्तःपुर में आप निर्भय हैकैं चले आये, आपकूँ कोई भय नहीं लग्यौ? हमारी प्यारी मित्र-पूजा के ताईं दोनूँ नैन मूँदि आसन पै बिराजी हतीं सो आपनै आय कैं अंग-स्पर्श करि लीना, लोक की लाज, कुल की कान कछु समझी नहीं।