ठाकुरजी- हे ललिते, या में मेरौ कहा दोष है? मैं तो अपनी खिरक के निकट खेलि रह्यौ हतौ, मोकूँ यहाँ तत्क्षन कोई देवता पकरि लायौ।
श्रीजी- हे ललिते, वह देबी कहाँ है? वाकूँ अब हू बिस्वास भयो कि नहीं?
ललिता- हे प्यारी! वो देबी तो आपके दरसन ध्यान सौं सब वाधान सौं रहित हैकैं या घर के मध्य में प्रबेस करि गई।
ठाकुरजी- ओहो, प्यारी, आपमें ये बात हैं। आपके यहाँ कोई सिद्धनी अथवा खेचरी देबी आवै है, अवश्य वाके निकट रहिकैं कोई सखी मंत्र सीखै है। तब ही मंत्र सिद्ध करि मोकूँ आकर्षत करि दास बनाय लियौ है। हे प्यारी, अब वह मंत्र मोकूँ हू बताऔ जासौं मैं हू काहू कूँ आकर्षन करूँ।
श्रीजी- हे प्यारे, आपने तौ एक बंसी देवी कूँ ही ऐसी सिद्ध करि राखी है, जो सब कूँ आकर्षन करि लावै है। हे सखी ललिते, यो देवी कहाँ है? वाकूँ सीघ्र बुलावौ।
सखी- हे प्यारी, वा देबी में ते तौ ये देवा प्रगट है गये।
श्रीजी- क्यों प्यारे?
ठाकुरजी- हाँ प्यारी, आपके दरसनन के लिए रात-दिनों जुक्ति सोचत रहूँ हूँ।