राधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ पृ. 235

श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ

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श्रीप्रेम-सम्पुट लीला

देवांगना-
मति ऐसी संका करौ, हम हैं पतिब्रत नारि।
परपति मुख अवलोक ते धर्म जाय सुकुमारि।।

हे श्रीराधिके, प्रानप्रतिपालिके, सुनौं। जद्यपि बंसी-धुनि कौ प्रभाव तौ ऐसौ ही है, और आप सत्य ही कहौ हौ, परंतु धर्म सृंखला मेरे हृदय कूँ बिलोय रही है। और लोक पतिब्रत धर्म में मेरी आत्मा फँसि रही है। अतः ऐसी संका मत करौ, मैं हू आपकी भाँति ही पतिब्रत धर्म पर दृढ़ रहिबेवारी स्त्री हूँ।

श्रीजी- हे पद्मानने, धर्मसील-बृत्ति तुमने जो कछु कही, सत्य ही है। धर्म कौ तो ऐसौ ही स्वरूप है, परंतु जब प्रेम के स्वरूप कूँ समझौगी, तब ऐसैं नहीं बोलौगी। हे देवांगने, मैंने आपकूँ अपनी सहेली बनाय लीनी है, यासौं सोक अवस्य होय है कि आप प्रेम कौ रूप तथा कृष्न तत्त्व स्वरूप कूँ नहीं समझौ हौ। याही सौं धर्म-सृंखला में बँधी बोलौ हौ।

देवांगना-

(दोहा)

जो कछु कहौ सो कहि सकौ, हौ तुम परम प्रबीन।
आप तुल्य या जगत में बिधि न प्रगट कोई कीन।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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क्रमांक विषय का नाम पृष्ठ संख्या
1. श्रीप्रेम-प्रकाश-लीला 1
2. श्रीसाँझी-लीला 27
3. श्रीकृष्ण-प्रवचन-गोपी-प्रेम 48
4. श्रीगोपदेवी-लीला 51
5. श्रीरास-लीला 90
6. श्रीठाकुरजी की शयन झाँकी 103
7. श्रीरासपञ्चाध्यायी-लीला 114
8. श्रीप्रेम-सम्पुट-लीला 222
9. श्रीव्रज-प्रेम-प्रशंसा-लीला 254
10. श्रीसिद्धेश्वरी-लीला 259
11. श्रीप्रेम-परीक्षा-लीला 277
12. श्रीप्रेमाश्रु-प्रशंसा-लीला 284
13. श्रीचंद्रावली-लीला 289
14. श्रीरज-रसाल-लीला 304
15. प्रेमाधीनता-रहस्य (श्रीकृष्ण प्रवचन) 318
16. श्रीकेवट लीला (नौका-विहार) 323
17. श्रीपावस-विहार-लीला 346
18. अंतिम पृष्ठ 369

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