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श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ
श्रीरासपञ्चाध्यायी लीलाहम आपके चरन कमलन की सेविका हैं, यातैं आप हमरौ परित्याग मत करौ। जैसैं भगवान् नारायन संसार-बंधन सौ छूटिवै की इच्छा राखिबेवारे पुरुष कौ मनोरथ पूर्ण करैं हैं, वैसें ही आप हू हमारे भीतर जागृत भई बिसेष क्रीड़ा की इच्छा कूँ, आपकी चरनसेवा वासना कूँ, जो प्रेम-परिपाक की बिलास-स्वरूपा है एवं संपूर्ण पुरुषार्थन की सार-सर्वस्वा है, पूर्ण करि कैं हमें कृतार्थ करौ।
हे प्यारे! आप सब धर्मन के रहस्य कूँ जानौ हौ, आपने पति-पुत्र एवं अन्य स्वजनन की जथायोग्य सेवा करनौ ही धर्म बतायौ सो उत्तम है; परंतु आपकूँ उपदेस दैनौ तो तब उचित होवतौ, जब हम आपकूँ बक्ता के सिंहासन पै बैठाय कैं धर्म पूछतीं जब हमनै को, प्रस्न और जिग्यासा नायँ करी, तब आपकौ यह उपदेस आप उपदेस करिबे वारे के प्रति हमारी ओर सौं चरितार्थ हौ जाय; कारन, आप ईस्वर हौ- नहीं तुम्ह तौ प्रानिमात्र के प्रियतम, बंधु और आत्मा हौ। जब सब देहधारीन की आत्मा आप ही हौ, तब पति पुत्रादि में हूँ आत्मारूप सों आप ही स्थित हौ- अतः उनकी देह में हू सेव्य तुमहीं हौ। वे ही तुम जब साक्षात् हमैं प्राप्त हौ, तब एकमात्र तुम्हारी सेवा ही उन सबकी सेवा है; तुम्हारे उपदेस की साँची चरितार्थता तुम्हारी सेवा सौं ही होय है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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